Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
तथास्वभाव है । उस तथास्वभाव को पूर्वाचार्यों ने युक्ति द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया है
कृष्णपाक्षिक जीव दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करने वाले कहलाते हैं । दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करने वाले अधिक पाप के उदय वाले होते हैं। क्योंकि पाप के उदय के बिना संसार में परिभ्रमण नहीं होता है। बहुत से पाप के उदय वाले क्रूरकर्मी होते हैं । क्रूरकर्मों के बिना अधिक पाप का बन्ध नहीं होता है और क्रूरकर्मी प्रायः भव्य होने पर भी तथास्वभाव - जीवस्वभाव से दक्षिणदिशा में अधिक उत्पन्न होते हैं, किन्तु शेष तीन दिशाओं में अधिक प्रमाण में उत्पन्न नहीं होते हैं । कहा भी है
पायमिह कुरकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणल्लेसु । नेरइय- तिरिय- मणुया - सुराइठाणेसु गच्छन्ति ॥
अर्थात् कृष्णपाक्षिक जीव क्रूरकर्मी होते हैं । जिससे भव्य होने पर भी नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति आदि स्थानों में प्रायः दक्षिणदिशा में उत्पन्न होते हैं ।
इस प्रकार दक्षिणदिशा में बहुत से कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति सम्भव होने से पूर्व, उत्तर और पश्चिम से दक्षिणदिशा के नारक असंख्यातगुणे सम्भव हैं ।
सातवीं नरकपृथ्वी की दक्षिणदिशा के नारकों से छठी तमःप्रभा नरकपृथ्वी में पूर्व, उत्तर और पश्चिम दिशा में उत्पन्न हुए नारक असंख्यातगुणे हैं । इनके असंख्यातगुणे होने का कारण यह है कि सर्वाधिक निकृष्टतम पाप करने वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य सातवीं नरकपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं और कुछ न्यून- न्यून पाप करने वाले छठी आदि नरक पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं । सर्वाधिक पाप करने वाले सबसे अल्प होते हैं और अनुक्रम से कुछ न्यून - न्यून पाप करने वाले अधिक अधिक होते हैं । इस हेतु से सातवीं नरकपृथ्वी के दक्षिण दिशा नारक जीवों की अपेक्षा छठी नरकपृथ्वी में
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