Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
असंख्यात सूचिश्रेणिप्रमाण नारक हैं और शेष नरकों में श्रेणि के असख्यातवें भाग प्रमाण नारक हैं और उन्हें यथोत्तर के क्रम से तथारूप अर्थात् उत्तरोत्तर असंख्यातवें असंख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव के भेद से संसारी जीवों की चार गतियाँ हैं और संज्ञी जीव चारों गतियों में होते हैं । इसलिये चारों गतियों की अपेक्षा संज्ञी जीवों का विचार करना अपेक्षित है । सर्वप्रथम नरकगति की अपेक्षा विचार करते हैं
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'पढमाए असंखसेढि नेरइया' अर्थात् पहली रत्नप्रभा नरकपृथ्वी में सात राजूप्रमाण घनीकृत लोक की एक प्रादेशिकी असंख्याती सूचिश्रेणिप्रमाण नारक हैं । अर्थात् असंख्याती सूचिश्रेणि के जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने पहले नरक में नारक हैं तथा शेष दूसरी आदि नरकपृथ्वी में सूचिश्रेणि के असंख्यातवें भाग, परन्तु उत्तरोत्तर पूर्वपूर्व पृथ्वी में रहे हुए नारकों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग जानना चाहिये - 'सेढिअसं खेज्जंसो से सासु जहोत्तरं तह' । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पहली पृथ्वी के नारकों से दूसरी पृथ्वी में नारक श्रेणि के असंख्यातवें भाग, दूसरी नरकपृथ्वी में रहे हुए नारकों की अपेक्षा तीसरी नरक पृथ्वी में असंख्यातवें भाग प्रमाण नारक हैं, तीसरी पृथ्वी की अपेक्षा चौथो पृथ्वी में असंख्यातवें भाग प्रमाण नारक हैं, इत्यादि । इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वियों के नारकों के लिये समझना चाहिये । उत्तरोत्तर श्रेणि का असंख्यातवाँ भाग छोटा-छोटा होने से यह अल्पबहुत्व घट सकता है । '
१ यहाँ बताई गई नारकों की संख्या से गोम्मटसार जीवकांड में दी हुई नारकों की संख्या में भिन्नता है
सामण्णा णेरइया घणअंगुलविदियमूलगुणसेढी ।
विदियादि वार दस अड छत्ति दुणिजपदहिदा सेढी ॥ १५३॥
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