Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५
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इसी प्रकार प्रत्येक व्यंतरनिकाय के प्रमाण के लिये भी समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जिस तरह समस्त व्यंतर देवों का प्रमाण बतलाया है, उसी प्रकार एक-एक व्यंतरनिकाय का प्रमाण समझ लेना चाहिये । किन्तु ऐसा करने पर भी समस्त व्यंतर देवों के समूह की प्रमाणभूत संख्या के साथ विरोध नहीं आता है। क्योंकि प्रतर के आकाशप्रदेशों को भाजित करने वाले संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि के आकाशप्रदेश लेने का जो कहा है, वह संख्यात छोटा-बड़ा लेना चाहिये । जहाँ एक-एक व्यंतर की संख्या निकालनी हो, वहाँ तो बड़े संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि के आकाश प्रदेशों द्वारा प्रतर के आकाशप्रदेशों को विभाजित करना चाहिये, जिससे उत्तर की संख्या छोटी आये और यदि सर्वसमूह की संख्या निकालनी हो, वहाँ छोटे संख्याता योजनप्रमाण सूचिश्रेणि के आकाशप्रदेशों द्वारा प्रतर के आकाशप्रदेश विभाजित करना चाहिये, जिससे समस्त व्यंतरों के कुल जोड़ जितनो संख्या प्राप्त हो ।'
इस प्रकार से व्यंतर देवों का प्रमाण जानना चाहिये। अब ज्योतिष्क देवों का प्रमाण बतलाते हैं। ज्योतिष्क देवों का प्रमाण
छप्पन्नदोसयंगुल सूइपएसि भाइओ एयरो।
जोइसिएहि होरइ सट्ठाणे त्थीय संखगुणा ॥१५॥ १ अनुयोगद्वार तथा प्रज्ञापना सूत्र में व्यंतर देवों की संख्या इस प्रकार
बतलाई है-कुछ न्यून संख्याता सौ योजन सूचिश्रेणि के प्रदेशों का वर्ग करें, उसमें कुल जितने प्रदेश आयें, उतने प्रदेशप्रमाण घनीकृत लोक के एक प्रतर के जितने खंड हों, उतने कुल व्यंतर हैं । __ गोम्मटसार जीवकांड गाथा १६० में व्यंतर देवों का प्रमाण इस प्रकार बतलाया है
तीन सौ योजन के वर्ग का जगत्प्रतर में भाग देने से जो लब्ध आये, उतना व्यंतर देवों का प्रमाण है।
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