Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
शंका - अपर्याप्त संज्ञी जीव असंख्यात कैसे कहे जा सकते हैं ? क्योंकि वे हमेशा होते नहीं हैं, उनकी आयु अन्तमुहूर्त है और विरहकाल बारह मुहूर्त है । इसलिये कुछ अधिक ग्यारह मुहूर्त तक तो एक भी अपर्याप्त संज्ञी जीव होता नहीं है, तो फिर असंख्यात कैसे माने जा सकते हैं ?
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समाधान- उपर्युक्त दोष सम्भव नहीं है । क्योंकि यद्यपि वे सदैव नहीं होते हैं, किन्तु जब भी होते हैं तब जघन्य से एक-दो और उत्कृष्ट से असंख्यात होते हैं । जब होते हैं तब उपयुक्त संख्या का सद्भाव है । इसलिये असंख्यात कहने में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है । कहा भी है
'एगो व दो व तिन्नि व संखमसंखा व एगसमएणं'
अर्थात् - एक समय में एक, दो, तीन, संख्यात, अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं ।
इस प्रकार सामान्य से
जीवभेदापेक्षा संख्याप्रमाण जानना चाहिये | अब गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों की संख्या का प्रमाण बतलाते हैं कि
'मिच्छाणता' अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं। क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं । समस्त निगोदिया जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं और निगोदराशि अनन्त है । अतएव अनन्त संख्या की पूर्ति करने वाले वे ही जीव हैं और उन्हीं के कारण मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनन्त मानी जाती है । तथा
'चउरो पलियासंखंस' अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान से अनन्तरवर्ती चार गुणस्थान वाले जीव यानि सासादनसम्यग्दृष्टि, मिश्रदृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान वाले जीव क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । यद्यपि अध्रुव होने से सासादन और मिश्रदृष्टि गुणस्थान वाले जीव सदैव नहीं होते हैं परन्तु जब होते हैं तब जघन्य से एक-दो और उत्कृष्ट से क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं ।
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