Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
घनीकृत लोक' के ऊपर नीचे के प्रदेश रहित एक-एक प्रदेश की मोटाईरूप मंडक के आकार वाले प्रतर को अंगुलमात्र क्षेत्र के असंख्यात वें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेश के द्वारा विभाजित करते हुए अपहार करते हैं ।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि समस्त पर्याप्त प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के जीव एक ही समय में सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करने के लिये उद्यत हों और यदि एक साथ एक-एक जीव अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण एक-एक खण्ड को अपहृत करें - ग्रहण करें तो एक ही समय में वे समस्त जीव उस सम्पूर्ण प्रतर को अपहृत करते हैं- ग्रहण करते हैं । जिससे यह अर्थ फलित हुआ कि घनीकृत लोक के एक प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उतने पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव हैं तथा इसी प्रकार 'भूदगतणू य' - यानि पर्याप्त बादर पृथ्वीका और जलकाय के जीवों के प्रमाण के लिये भी समझ लेना चाहिये कि वे भी घनीकृत लोक के एक प्रतर में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उतने हैं ।
यद्यपि सामान्य से देखने पर इन तीनों प्रकार के जीवों का प्रमाण समान है । फिर भी अंगुल के असंख्यातवें भाग के असंख्यात भेद होने से इन तीनों का इस प्रकार अल्पबहुत्व समझना चाहिये
पर्याप्त प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव अल्प हैं, उनसे पर्याप्त बादर पृथ्वीकाय के जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी ( पर्याप्त बादर
१ चौदह राजू ऊँचे लोक को घनीकृत करने की विधि को परिशिष्ट में देखिये |
२ चौदह राजूप्रमाण लोक को बुद्धि द्वारा सात राजू लम्बा चौड़ा और ऊँचा करना वनीकृत लोक कहता है । उसकी एक-एक प्रदेश लम्बी-चौड़ी और सात राजू ऊँची आकाशप्रदेश की पंक्ति को सूचिश्रेणि और सूचि - श्रेणि के वर्ग को प्रतर कहते हैं ।
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