Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधक-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५
२३ होते हैं और शेष जीव पूर्व उत्पन्न हुए होते हैं, किन्तु उत्पद्यमान की भजना समझना चाहिये। विशेषार्थ-जीवस्थानों में जीवों की विद्यमानता के निरूपण को सत्पदप्ररूपणा कहते हैं। जिसका विचार गाथा में किया गया है।
जीवस्थानों के चौदह भेद हैं। उनमें से 'पुढवाईचउ'-पृथ्वीकायादि चार अर्थात् पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय ये प्रत्येक 'चउहा' - सूक्ष्म और बादर तथा पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार-चार प्रकार के हैं और सब मिलाकर इनके सोलह भेद होते हैं। ___इसी प्रकार से साधारण वनस्पति जीव भी सूक्ष्म और बादर तथा पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार प्रकार के जानना चाहिये'साहारणवणंपि' तथा 'पत्तेय पज्जपज्जा' अर्थात् प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। इस तरह एकेन्द्रिय के कुल बाईस भेद होते हैं।
ये सभी प्रत्येक भेद पूर्वोत्पन्न और उत्पद्यमान इस तरह दो-दो प्रकार के हैं। ये बाईस भेद वाले जोव प्रागुत्पन्न और वर्तमान में उत्पन्न होते हुए निरन्तर होते हैं-'संतयं सययं', किन्तु उनका विरहकाल नहीं होता है। यानी सदैव विद्यमान रहते हैं। ___सेसा उ' शेषास्तु अर्थात् पूर्वोक्त एकेन्द्रिय से शेष रहे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय ये प्रत्येक पर्याप्त और अपर्याप्त तथा संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त ये सभी प्रकार के जीव प्रागुत्पन्न होते हैं और उत्पद्यमान भजनीय हैं। अर्थात् ये नौ प्रकार के जीव पूर्वोत्पन्न तो निरन्तर होते हैं, परन्तु विवक्षित समय में उत्पन्न होते हुए कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं तथा गाथा में 'सेसा उ' 'सेसा' के बाद आगत 'उ तु' शब्द अनेकार्थक होने से यह आशय समझना चाहिये कि संज्ञी लब्धि-अपर्याप्त प्रागुत्पन्न और उत्पद्यमान इस तरह दोनों प्रकार से भजनीय हैं। इसका कारण यह है कि लब्धि
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