Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
अपर्याप्त संज्ञो की आयु अन्तमुहूर्त प्रमाण है, अतएव उनका अवस्थान उतना ही हो सकता है और उनका उत्पत्ति की अपेक्षा विरहकाल बारह मुहूर्त का है। अतएव उत्पन्न होने के बाद विरहकाल पड़े और प्रागुत्पन्न अपनी आयु पूर्ण करके मरण को प्राप्त करें तो कुछ अधिक ग्यारह मुहूर्त पर्यन्त एक भी लब्धि-अपर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय प्रागुत्पन्न या उत्पद्यमान नहीं हो सकता है। इसीलिये प्रागुत्पन्न की भी भजना बतलाई है।
प्रश्न-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक भी अन्तमुहूर्त की आयु वाले हैं और उनका विरहकाल भी अन्तमुहूर्त प्रमाण बतलाया है । अतएव वे भी प्रागुत्पन्न भजना से क्यों नहीं होते हैं ? यानि लब्धि-अपर्याप्तक संज्ञी की तरह वे भी प्रागुत्पन्न हों या न भी हों, ऐसा क्यों नहीं माना जाये ?
उत्तर- इसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि विरहकाल से भी उनकी आयु का अन्तमुहूर्त बड़ा है । अतएव विरहकाल पूर्ण होने पर भी प्रागुत्पन्न जीव विद्यमान होते हैं, जिससे प्रागुत्पन्न जीवों की अपेक्षा भजना सम्भव नहीं है ।
प्रश्न-विरहकाल की अपेक्षा आयु का अन्तमुहूर्त बड़ा है, यह कैसे जाना जा सकता है ?
उत्तर--ग्रंथान्तरों में जहाँ नित्य राशियों का विचार किया है, वहाँ जो नित्य राशियां गिनाई हैं, उनके साथ लब्धि-अपर्याप्तक द्वोन्द्रियादिक की भी गणना की है और वह गणना तभी हो सकती है जब विरहकाल से आयु का अन्तमुहूर्त बड़ा हो ।
इस प्रकार सामान्य से जीव के चौदह भेदों का सत्पद-प्ररूपणा द्वारा विचार करने के बाद अब उनमें के अन्तिम भेद (संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक) का चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा सत्पदप्ररूपणा द्वारा विचार करने के लिये पहले गुणस्थानों का सत्पदप्ररूपणा द्वारा विचार करते हैं।
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