Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह
तो सामान्यतः सभी तिर्यंचों और मनुष्यों के होते हैं । इसीलिये मनुष्यों में पांच शरीर होते हैं - ' मणुया पंचसु' ।
पूर्वोक्त से शेष रहे एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों के औदारिक, तैजस, कार्मण यह तीन शरीर होते हैं— 'सेसा तिसु तणुसु' तथा समस्त कर्ममलरूप कलंक से रहित सिद्ध जीवों के एक भी शरीर नहीं होता है- 'अविग्गहा सिद्धा' | क्योंकि सकर्मा होने से संसारी जीवों में ही शरीर पाया जाता है, किन्तु सिद्धों के तो संसार के कारणभूत सभी कर्मों का क्षय हो जाने से शरीर होता ही नहीं है ।
इस प्रकार किम् आदि पदों द्वारा जीव की प्ररूपणा जानना चाहिये |
सत्पद आदि पदों द्वारा जीव- प्ररूपणा
अब दूसरे प्रकार से सत्पद आदि नौ पदों द्वारा जीव की प्ररूपणा करते हैं | नौ पदों के नाम इस प्रकार हैं
१. सत्पदप्ररूपणा, २. द्रव्य प्रमाण, ३. क्षेत्र, ४. स्पर्शना, ५. काल, ६. अन्तर, ७. भाग, ८. भाव और ६. अल्पबहुत्व । इनमें से प्रथम सत्पदप्ररूपणा करते हैं
पुढवाईच चउहा साहारवर्णपि संतयं सययं । पत्तेय पज्जपज्जा दुविहा सेसा उ उववन्ना ॥५॥
शब्दार्थ -- पुढवाईचउ - पृथ्वीकाय आदि चार, चउहा- चार प्रकार के, साहारवर्णपि साधारण वनस्पतिकाय भी, संतयं - विद्यमान होते हैं, सययंसदैव — निरन्तर, पत्तेय - प्रत्येक वनस्पतिकाय, पज्जपज्जा - पर्याप्त - अपर्याप्त, दुविहा- दो प्रकार के, सेसा - शेष, उ और, उबवन्ना – उत्पन्न हुए |
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गायार्थ- पृथ्वी काय आदि चार-चार प्रकार के तथा साधारण वनस्पतिकाय भी चार प्रकार के हैं । प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव पर्याप्त अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के सदैव - निरन्तर विद्यमान
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