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१३ सयोगिकेवलिगुणस्थानका स्वरूप
१४ अयोगिकेवलिगुणस्थानका स्वरूप
जीवसमास
'केवलणादिवायरकिरणकलावप्पणासिअण्णाणो । णवकेवललधुग्गमपावियपरमप्पववसो ||२७|| जं णत्थि राय-दोसो तेण ण बंधो हु अत्थि केवलिणो । जह सुक्ककुड्डुलग्गा वालुया सडइ तह कम्मं ॥ २८ ॥ असहायणाण- दंसणस हिओ वि हु केवली हु× जोएण । जुत्तोति सजोइजिणो अणाइणिहणारिसे वृत्तों ॥२६॥
केवलज्ञानरूप दिवाकर ( सूर्य ) की किरणों के समूहसे जिनका अज्ञानान्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है, जिन्होंने नौ केवल लब्धियोंके उद्गमसे 'परमात्मा' संज्ञा प्राप्त की है और जो पर-सहायसे रहित केवलज्ञान-दर्शन से सहित हैं, ऐसे योग-युक्त केवली भगवान्को अनादिनिधन आर्षमें सयोगिजिन कहा है । केवली भगवान् के यतः राग-द्वेप नहीं होता, इस कारण से उनके नवीन कर्मका बन्ध भी नहीं होता है । जिस प्रकार सूखी भित्तीपर आकरके लगी हुई वालुका तत्क्षण झड़ जाती है, इसी प्रकार योगके सद्भावसे आया हुआ कर्म भी कषायके न होनेसे तत्क्षण झड़ जाता है ॥२७-२६ ॥
सेलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसओ जीवो । कम्मरयविमुको गयजोगो केवली होड़ || ३०॥
जो जीव शैलेशी अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, अर्थात् शैल (पर्वत) के समान स्थिर परिणामवाले हैं; अथवा जिन्होंने अठारह हजार भेदवाले शीलके स्वामित्वरूप शीलेशत्वको प्राप्त किया है, जिनका निःशेप आस्रव सर्वथा रुक गया है, जो कर्म-रजसे विप्रमुक्त हैं और योगसे रहित हो चुके हैं, ऐसे केवली भगवान्को अयोगिकेवली कहते हैं ||३०||
१५ गुणस्थानातीत सिद्धोंका स्वरूप
अविकम्मवियडा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा ।
७
अट्टगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ॥३१॥
जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोकके अग्रभागपर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं ||३१||
इस प्रकार गुणस्थानप्ररूपणा समाप्त हुई ।
अब दूसरी जीवसमासप्ररूपणाका वर्णन करते हैं-"जेहिं अणेया जीवा णअंते बहुविहा वि तजादी |
पुण संगहिदत्था जीवसमासे + ति विष्णेया ॥३२॥
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1. सं० पञ्चसं० १, ४६ । २.१, ५० । ३. १, ५१ 11. १, ६३ ।
१.६० भा० १ पृ० १६१ गा० १२४ । गो० जी० ६३ । २. ध० भा० १ पृ० १६२ गा० १२५ । गो० जी० ६४ । ३. ध० भा० १ पृ० १६६ गा० १२६ । गो० जी० ६५ । परं तत्र 'सीलेसि' इति पाठः । ४ ० भा० १ ० २०० गा० १२७ गो० जी० ६८ । ५. गो० जी० ७० । x द व केवलाहिं | ॐ व गोरिसे ।
व -समासा ।
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