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प्रस्तावना
उसके जाननेमें हेतुभूत जो नय है वह दो प्रकारका है-शुद्ध नय और व्यवहार नय । इनमें व्यवहार नय तो अज्ञानी जनको प्रबोध करनेके लिये है, कर्मक्षयका कारण यथार्थमें शुद्ध नय ही है। व्यवहार नय यथावस्थित वस्तुको विषय न करनेके कारण अभूतार्थ और शुद्ध नय यभावस्थित वस्तुको विषय करनेके कारण भूतार्य कहा जाता है । वस्तुका यथार्थ स्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया जाता है वह व्यवहारके आश्रयसे ही किया जाता है । चूंकि मुख्य और उपचार के आश्रित किया जानेवाला सब विवरण उस व्यवहारके ऊपर ही निर्भर है, अत एव इस दृष्टिसे उसे भी पूज्य माना गया है ( ८-११)।
आगे शुद्ध नयके आश्रयसे रखत्रयके स्वरूपको बतलाकर यह निर्देश किया है कि जिसने समस्त परिग्रहको छोपकर जंगलका आश्रय ले लिया है तथा जो वहां स्थित रहकर सब प्रकारके उपद्रवोंको भी सह रहा है, वह यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है तो फिर उसमें और वनके पृक्षमें कोई भेद नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, वह भी तो विवेकसे रहित होकर इसी प्रकारके कष्टोंको सहता है (१६) । इस प्रकारसे सम्यग्ज्ञान और उस चित्स्वरूपकी महिमाको बतलाकर निश्चयसे मैं कौन ब कैसा हूं तथा मेरा कर्म व तत्कृत राग-द्वेषादिसे क्या सम्बन्ध है; इत्यादि विचार किया गया है । जो आत्माको बद्ध देखता है वह संसारमें बद्ध ही रहता है और जो उसे मुक्त देखता है वह मुक्त ही हो जाता है, अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे छूट जाता है । जब जीवको विशुद्ध आस्माका अनुभवन होने लगता है तब वह इन्द्रकी भी विभूतिको तृणके समान तुच्छ समझता है ।
१२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति-इस अधिकारमें २२ श्लोक हैं। यहां प्रथमतः दुर्जेय काम-सुभटको जीत लेनेवाले मुनियोंको नमस्कार करके ब्रह्मचर्यके स्वरूपका निर्देश करते हुए यह कहा है कि प्रश्न का अर्थ विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा होता है, उस आत्मामें चर्य अर्थात् रमण करनेका नाम प्रमचर्य है। यह निश्चय ब्रह्मचर्यका स्वरूप है । वह उन मुनियोंके होता है जो स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, किन्तु अपने शरीरसे भी निर्ममत्व हो चुके हैं। ऐसे जितेन्द्रिय तपस्वी सब खियोंको यथायोग्य माता, बहिन व बेटीके समान देखते हैं। इस प्राचर्यके विषयमें यदि कदाचित् खममें दोष उत्पन्न होता है तो ये रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं। उस प्रमचर्यके रक्षणका मुख्य उपाय यद्यपि मनका संयम ही है, फिर भी गरिष्ठ व कामोद्दीपक भोजनका परित्याग भी उसके संरक्षणमें सहायक होता हैं। (१-३) इस प्रमचर्यको सुरक्षित रखनेके लिये यहां सियोंके निन्ध रूप व लावण्य आदिकी अस्थिरताको दिखलाफर (१२-१५) रागपूर्ण दृष्टिसे उनके अंगोपांगोंको देखना, उनके समीपमें रहना, उनके साथ वार्तालाप करना और उनका स्पर्श करना; इस . सबको अनर्थपरम्पराका कारण बतलाया गया है (९)।
१३. ऋषभस्तोत्र- यह प्रकरण प्राकृत भाषामें रचा गया है। इसमें ६० गाथायें हैं। यहां प्रन्यकर्ता नाभिराय एवं मरुदेवीके पुत्र भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति करनेमें इस प्रकार अपनी असमर्थताका अनुभव करते हैं जिस प्रकार कुऍमें रहनेवाला क्षुद्र मेंदक समुद्रके विस्तार आदिका वर्णन नहीं कर सकता ।