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पचनन्दि-पञ्चविंशतिः ८. सिद्धस्तुति—इस अधिकारमें २९ श्लोक हैं। यहां प्रथमतः सिद्धोंको नमस्कारपूर्वक उनसे अपने कश्याणकी प्रार्थना करते हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके क्षयसे क्रमशः सिद्धोंके कौन-से गुण प्रादुर्भूत होते हैं, इसका निर्देश किया गया है (६)। तत्पश्चात् उनके ज्ञान-दर्शन एवं सुखादिकी विशेष प्ररूपणा की गई है।
९. आलोचना– इस अधिकारमें ३३ श्लोक हैं। यहां जिनेन्द्रके गुणोंका कीर्तन करते हुए यह बतलायां है कि मन, वचन और काय तथा कृत, कारित व अनुमोदन; इनको परस्पर गुणित करनेपर जो नौ स्थान (मनकृत, मनकारित और मनानुमोदित आदि) प्राप्त होते हैं उनके द्वारा प्राणीके पाप उत्पन्न होता है । उसे दूर करनेके लिये जिनेन्द्र प्रभुके आगे आत्मनिन्दा करते हुए 'बह मेरा पाप मिथ्या हो ऐसा विचार करना चाहिये । अज्ञानता या प्रमादके वशीभूत होकर जो पाप उत्पन्न हुआ है उसे निष्कपट भावसे जिनेन्द्र व गुरुके समक्ष प्रगट करना, इसका नाम आलोचना है । यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् सर्वज्ञ होनेसे उस सम पापको स्वयं जानते हैं, फिर भी आत्मशुद्धिके लिये दोषोंकी आलोचना करना आवश्यक है। कारण कि साधुके मूल और उत्तर गुणों के परिपालनमें जो दोष दृष्टिगोचर होते हैं, उनकी आलोचना करनेसे हृदयके भीतर कोई शल्य नहीं रहता ( ७-९)।
आगे यहां यह भी कहा गया है कि प्राणीके असंख्यात संकल्प-विकल्प और तदनुसार उसके असंख्यात भी होते हैं ऐसी अदरको नागोमा हिगिरी उन सब पापोंका प्रायश्चित्त करना सम्भव नहीं है । अत एव उन सबके शोधनका एक प्रमुख उपाय है अपने मन और इन्द्रियोंको बाह्य पदार्थोकी ओरसे हटाकर उनका परमात्मस्वरूपके साथ एकीकरण करना । इसके लिये मनके ऊपर विजय प्राप्त करना आवश्यक हैं। कारण कि उस मनकी अवस्था ऐसी है कि समस्त परिग्रहको छोड़कर वनका आश्रय ले लेनेपर भी वह मन बाह्य पदार्थों की ओर दौड़ता है । अत एव उसके ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिये उसे परमात्मस्वरूपके चिन्तनमें लगाना श्रेयस्कर है। इस प्रकार विवेचन करते हुए अन्तमें यह निर्दिष्ट किया गया है कि सर्वज्ञ प्रभुने जिस चरित्रका उपदेश दिया है उसका परिपालन इस कलि कालमें दुष्कर है । अत एव जो भव्य जीव इस समय तन्मय होकर उस सर्वज्ञ वीतराग प्रभुकी केवल भक्ति ही करता है वह उस दृढ़ भक्तिके प्रसादसे संसार-समुद्रके पार हो जाता है (३०)।
१०. सद्बोधचन्द्रोदय-- इस अधिकारमें ५० श्लोक हैं। यहां भी चित्स्वरूप परमात्माकी महिमाको दिखलाफर यह निर्दिष्ट किया है कि जिसका चित्त उस चित्स्वरूपमें लीन हो जाता है वह योगी समस्त जीवरा शिको आत्मसदृश देखता है । उसे अज्ञानी जनके कर्मकृत विकारको देखकर किसी प्रकारका सोभ नहीं होता । यहाँ यह भावना की गई है कि यह प्राणी मोहनिद्राके वशीभूत होकर बहुत काल तक सोया है । अब उसे इस शास्त्रको पढ़कर प्रबुद्ध (जागृत ) हो जाना चाहिये।
११. निश्चयपश्चाशत्-इस अधिकारमें ६२ श्लोक हैं । यहां प्रथमतः मन व वचनकी अविषयभूत (अचिन्त्य व अवर्णनीय) परंज्योति एवं गुरुके जयवंत रहनेकी प्रार्थना करके यह निर्देश किया है कि संसारमें सब प्राणियोंने जन्म-मरणके कारणभूत विषयोंको सुना है तथा उनका परिचय व अनुभव भी प्राप्त किया है, किन्तु मुक्तिको कारणभूत यह परंज्योति उन्हें प्राप्त नहीं हुई। इसका कारण यह है कि उसका ज्ञान प्राप्त होना दुर्लभ है, और उससे भी अधिक दुर्लभ है उसका अनुभव (१-७)।