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पचनन्दि-पशितिः और फिर प्रमातके हो जानेपर पुनः अनेक दिशाओंमें चले जाते हैं उसी प्रकार पाणी अनेक योनियोंसे आकर विभिन्न कुलों में उत्पन्न होते हैं और फिर आयुके समाप्त होनेपर उन कुलोंसे अन्य कुलोंमें चले जाते हैं। ऐसी अवस्थामै उनके लिये शोक करना अज्ञानताका घोतक है (१६) । इस प्रकारसे अनेक विशेषताओं के द्वारा मृत्युकी अनिवार्यता और अन्य सभी चेतन-अवेतन पदार्थोकी अस्थिरताको दिखलाकर यहां इष्टवियोगमें शोक न करनेका उपदेश दिया गया है।
४. एकात्वसप्तति- इस अधिकारमें ८० श्लोक है । यहां चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार कर यह बताया है कि वह चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, फिर भी अपनी अज्ञानता के कारण अधिकतर प्राणी उसे जानते नहीं है। इसीलिये वे उसे बास पदामि खोजते हैं। जिस प्रकार अधिकतर प्राणी लकड़ीमें अन्यक स्वरूपसे अवस्थित अनिको नहीं ग्रहण कर पाते उसी प्रकार कितने ही प्राणी अनेक शासोंमें उलझकर उसे नहीं प्राप्त कर पाते । वह चेतन तत्त्व अनेक-धर्मात्मक है । परन्तु कितने ही मन्दबुद्धि उसे जात्यन्धहस्ती न्यायके अनुसार एकान्तरूपसे ग्रहण करके अपना अहित करते हैं। कुछ मनुष्य उसको जान करके भी अभिमानके वशीभूत होकर उसका आश्रय नहीं लेते हैं । जो धर्म वास्तवमें प्राणीको दुससे बचानेवाला है उसे दुईद्धि जनोंने अन्यथा कर दिया है । इसीलिये विवेकी जीवोंको उसे परीक्षापूर्वक ग्रहण करना चाहिये (१-९)।
जो योगी शरीर व कर्मसे पृथक् उस ज्ञानानन्दमय परप्रमको जान लेता है वही उस स्वरूपको प्राप्त करता है । जीवका राग-द्वेषके अनुसार जो किसी पर पदार्थसे सम्बन्ध होता है वह बन्धका कारण है तथा समस्त बाय पदार्थोसे भिन्न एक मात्र आत्मस्वरूपमें जो अवस्खान होता है, यह मुक्तिका कारण है । बन्ध-मोक्ष, राग-द्वेष, कर्म-आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो द्वैत (दो पदार्थोके आश्रित) बुद्धि होती है उससे संसारमें परिप्रमण होता है, तथा इसके विपरीत अद्वैत (एकत्व) बुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है । शुद्ध निश्चयनयके आश्रित इस अद्वैत बुद्धिमें एक मात्र अखण्ड आत्मा प्रतिभासित होता है। उसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी मेद प्रतिभासित नहीं होता । और तो क्या, उस अवस्थामें तो 'जो शुद्ध चैतन्य है वही निश्चयसे मैं हूँ इस प्रकारका भी विकल्प नहीं होता । मुमुक्षु योगी मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली मोक्षविषयक इच्छाको भी उसकी प्राप्तिमें बाधक मानते हैं। फिर मला वे किसी अन्य बाम पदार्थकी अभिलाषा करें, यह सर्वथा असम्भव है ( ५२-५३)।
जिनेन्द्र देवने उस परमात्मतत्त्वकी उपासनाका उपाय एक मात्र साम्यको बतलाया है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग; ये सब उसी साभ्यके नामान्तर है। एक मात्र शुद्ध चैतन्यको छोरकर आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं रहना; इसका नाम साम्य है (६३-६५)। आगे इस साम्यका और भी विवेचन करके यह निर्देश किया है कि कर्म और रागादिको हेय समझकर छोड़ देना चाहिये और उपयोगस्वरूप परंश्योतिको उपादेय समझकर प्रण करना चाहिये (७५.) । अन्तमें इस आत्मतत्त्वके अभ्यासका फल शाश्धतिक मोक्षकी प्राप्ति बतलाकर इस प्रकरणको समाप्त किया गया है।
१. दिग्देशेभ्यः खगा एप संवन्ति नगे नगे । खखकार्यवशायान्ति देशे वितु प्रो प्रमे ॥ इटोपदेश ९.