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राजनैतिक और सैनिक महत्व की सिखावट से यह मित्रता भंग हो गई । इस पर जयपुर महाराज ने धोकलसिंहजी की सहायता के बहाने से मारवाड़ पर हमला करने की तैयारी की । जब सब प्रबन्ध ठीक होगया तब जयपुर नरेश जगतसिंहजी ने एक बड़ी सेना लेकर मारवाड़ पर चढ़ाई कर दी। मार्ग में खंडेले नामक गांव में बीकानेर महाराज सूरजसिंह जी, धोंकलसिंहजी और मारवाड़ के अनेक सरदार भी इनसे आ मिले । पिण्डारी अमीरखाँ भी मय अपनी सेना के जयपुर की सेना में आ मिला।
जैसे ही यह समाचार महाराजा मानसिंहजी को मिला वैसे ही वे भी अपनी सेना सहित मेड़ता नामक स्थान में पहुँचे और वहाँ पर मोरचा बाँध कर बैठ गये। साथ ही इन्होंने मरहठा सरदार महाराज जसवंतराव होलकर को भी अपनी सहायतार्थ बुला भेजा । जिस समय होलकर और अंग्रेजों के बीच युद्ध छिड़ा था उस समय जोधपुर महाराज ने होल्कर के कुटुम्ब की रक्षा की थी। इस पूर्व-कृत उपकार का स्मरण कर होल्कर भी तत्काल इनकी सहायता के लिये रवाना हुए । परन्तु उनके अजमेर के पास पहुँचने पर जयपुर महाराज ने उन्हें एक बड़ी रकम देकर वापिस लौटा दिया।
___इसके बाद माँगोली की घाटी पर जयपुर और जोधपुर की सेना का मुकाबिला हुआ । युद्ध के समय बहुत से सरदार महाराजा की ओर से निकलकर धोंकलसिंहजी की तरफ जयपुर सेना में जा शामिल हुए, इससे जोधपुर की सेना कमज़ोर हो गई । अन्त में विजय के लक्षण न देख बहुत से सरदार महाराजा को वापित जोधपुर लौटा लाये । जयपुरवालों ने विजयी होकर मारोठ, मेड़ता, पर्वतसर, नागौर, पाली और सोजत आदि स्थानों पर अधिकार कर जोधपुर घेर लिया । सम्वत् १८६३ की चैत्र बदी ७ को जोधपुर शहर भी शत्रुओं के हाथ चला गया और केवल किले ही में महाराजा का अधिकार रह गया।
_ इसी समय मारवाड़ के राजनीतिक मंच पर दो महान् कार्य कुशल वीर और दूरदर्शी महानुभाव अवतीर्ण होते हैं । ये महानुभाव सिंधी इन्द्रराजजी और भण्डारी गंगारामजी थे। मारवाड़ की यह दुर्दशा उनसे न देखी गई। उन्होंने स्वदेश भक्ति की भावनाओं से प्रेरित होकर मारवाड़ को इन आपत्तियों से बचाने का निश्चय किया । वे उस वक्त जोधपुर के किले में कैद थे। महाराजा से प्रार्थना की कि अगर उन्हें किले से बाहर निकालने की आज्ञा दी जायगी तो वे शत्रु के दाँत खट्टे करने का प्रथल करेंगे। महाराजा ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करली और इन्हें गुप्त मार्ग से किले के बाहर करवा किया। इसके बाद ये दोनों वीर भेड़ते की ओर गये और वहाँ पर सेना संगठित करने का प्रयवकरने लगे। उन्होंने एक लाख रुपये की रिश्वत देकर सुप्रख्यात पिण्डारी नेता अमीरखाँ को अपनी तरफ मिला लिया। इसी बीच बापूजी सिंधिया को भी निमंत्रित किया गया और वे इसके लिए खाना भी हो गये थे। मगर बीच में ही जयपुरवालों ने उन्हें रिश्वत देकर वापिस लौटा दिया।