________________
नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण उच्छृखल एवं शब्द आदि विषयों में मूच्छिंत इंद्रियां अप्रशस्त इंद्रिय-प्रणिधि है।' दुष्प्रणिहित इंद्रिय वाले व्यक्ति की स्थिति को उपमा के माध्यम से स्पष्ट करते हए नियुक्तिकार कहते हैं—'तप आदि करने पर भी जिसकी इंद्रियां दुष्प्रणिहित होती है, वह मोक्षमार्ग से वैसे ही भटक जाता है,जैसे उच्छृखल अश्व वाला सारथि ।' क्रोध, मान आदि चार कणायों का निरोध करना नोइंद्रिय प्रणिधि है।
बाह्य और आभ्यन्तर चेष्टा से इंद्रिय और ऋषय का निरोध करना प्रणिधि हैं। प्रणिधान संयमी जीवन का मूल है लेकिन यदि माया या अहंकार के वशीभूत होकर साधक इंद्रिय या नोइंद्रिय का निग्रह करता है तो वह अप्रशस्त प्रणिधि है। अप्रशस्त प्रणिधि वाला मुनि कर्मों को बांध कर स्वयं भारी बन जाता है। जैसे कंटककीर्ण गडे में गिरने वाला व्यक्ति अपने अंगभंग कर लेता है.वैसे ही दप साधक अपने प्रव्रजित जीवन को खंडित कर लेता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप संयम की साधना के लिए प्रशस्त प्रणिधि का प्रयोग करने वाला साधक अपने कर्मों को वैसे ही भस्म कर देता है,जैसे सूखे तिनकों को अग्नि ।' साधना के बाधक तत्त्व
आचार्य भद्रबाहु आधात्मिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधि पुरुष थे। उनकी अध्यात्म-चेतना की रश्नियों का प्रकाश नियुक्ति-साहित्य पर भी पड़ा। नियुक्तियों में निरूपित आध्यात्मिक तत्व जीवन को नयी दिशा देने वाले हैं। निक्तिकार ने स्थान-स्थान पर कषाय के उपशमन की प्रेरणा दी है। उनके अनुसार ता करते हुए भी जिसके कषाय उत्कट हैं, वह बाल तपस्वी हस्ति-स्नान के समान व्यर्थ परिश्रम करता है तथा उसका श्रमण्य इक्षु-पुष्ण की भांति निष्फल होता
नियुक्तिकार ने अध्यात्म-विकास में बाधक १३ तत्त्वों की चर्चा की है—आलस्य, मोह, अवज्ञा, जड़तः, कोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्याक्षेप, कुतूहल और कीडा। ये सभी हेतु अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले व्यक्ति के सामने बाधा बनकर उपस्थित होते हैं किन्तु इन कारणों के आलोक में स्वयं का निरीक्षण कर व्यक्ति अपनी अध्यात्म-साधना को प्रशस्त कर सकता है। महर्षि पतञ्जलि ने भी चित्त में विक्षेप पैदा करने वाले नौ कारणों का उल्लेख किया है—व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रांतिदर्शन, अलब्धभूमिकता और अनवस्थितता। इन नौ हेतुओं को पतञ्जलि ने योगमल, योगप्रतिपक्ष और योगान्तराय के रूप में स्वीकार किया है।
आचार्य तुलसी ने 'मनोनुशासनम् में बाधक तत्त्वों का उल्लेख न करके समाधिस्थ व्यक्ति के सात विशेषणों का निर्देश दिया है। नियुक्तिकार द्वारा उल्लिखित तेरह बाधक तत्वों को यदि विलोम करके लिखा जाए तो मनोनुशासनम् में वर्णित सातों गुण इनमें समाहित हो जाते हैं। नियुक्ति की भाषा में इनको विघ्न रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है—१. रोग, २ शारीरिक अक्षमता, ३. अविनय, ४
१ दशनि २७१-२७३। २ दशनि २७४। ३. दशनि २७५ । ४. दशनि २७९-८३।
५. दशनि २७६, २७७ । ६. उनि १६३, १६४।। ७ पातञ्जलयोगदर्शन; १/३०। ८ मनो १/२; आरोग्यवान् दृढ़सहननो विनीतोऽकृतकलहो
रसाप्रतिबद्धोऽप्रमत्तोऽनल्सश्च ।।