________________
मत्स्य प्रदेश की हिन्दी साहित्य को देन
३
१. अलवर-अलवर का इतिहास काफी पुराना है, किन्तु अलवर के वर्तमान राजारों की परम्परा सन् १७७५ से चली जब प्रतापसिंहजी ने भरतपुर के जाटों से अलवर का दुर्ग छीन लिया। अलवर के राजा सूर्यवंशी कछवाहे हैं। कुछ लोगों ने इनके वंश को सतयुग से मिलाने को चेष्टा की है।' अलवर का दुर्ग बहुत पुराना और 'दिव्य' जाति का है ।२ किसी समय यहां जाटों का आधिपत्य था, किन्तु उनके उदासीन होने पर १७७५ में प्रतापसिंह ने किला छीन लिया। प्रतापसिंह माचाड़ी के जागोरदार राव मुहब्बतसिंह के पुत्र थे। वे जयपुर तथा भरतपुर दोनों दरबारों में रह चुके थे। इन्होंने राजगढ़ से अपना गज्य बढ़ाना प्रारम्भ किया, सबसे पहला किला सन् १७७० में राजगढ़ में ही बनवाया। राव प्रतापसिंहजी के कोई पुत्र न था, अत: उन्होंने थानागाजी से बख्तावरसिंह को अपना उत्तराधिकारी चुना । बख्तावरसिंह को महाराव राजा की उपाधि मिली। ये १८१५ ई. में गद्दी पर बैठे थे। इनके उत्तराधिकारी बनैसिंह अथवा विनयसिंह कला और साहित्य के प्रेमी थे। इन्होंने अनेक इमारतें बनवाई। शिवदानसिंह इनके पुत्र थे और उन्होंने अपने पिता के पश्चात् १८७४ ई. तक राज्य किया। मंगलसिंह पांचवें राजा थे और इनका समय सन् १६०० तक है। इनके पश्चात् महाराजा जयसिंह राजा हुए और वर्तमान महाराजा तेजसिंह इनके बाद गद्दी पर बिराजे । अलवर की साहित्यिक चेतना बहुत जागरूक रही है, इसका कारण यहां के राजा ग्रों की साहित्यिक अभिरुचि है।
२. भरतपुर–भरतपुर का इतिहास बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है । यहां की वीरता और दृढ़ता की प्रशंसा अग्रेजों ने भी मुक्त कंठ से की है।
१ पिनाकीलाल जोशी 'अलवर राज्य का इतिहास' (अप्रकाशित) दो भाग। दुर्ग सात प्रकार के होते हैं:- १ गिरि दुर्ग, २ वन दुर्ग, ३ जन दुर्ग, ४ रथ दुर्ग, ५ देव दुर्ग और ६ पंक दुर्ग तथा ७ मिश्र दुर्ग । (मानसार, १० अध्याय ६०/६१) देव दुर्ग
यह वर्षा प्रातप आँधी पानी से अप्रभावित होता है। इसकी दीवारों पर गणेश, गृह,
श्री मन्दिर, कार्तिकेय, सरस्वती, अश्विनौ आदि उत्कीर्ण किये जाते हैं। (शिल्परत्न) २ इसका निर्माण ऐसे स्थान पर किया जाना चाहिए जो प्रकृति से ही सुरक्षित हो ।
(एन इंसाईक्लोपीडिया अॉफ हिन्दु पाकिटेक्चर, वॉल्यूम ७, पृष्ठ २२६)। ३ अनेक विद्वान् 'मत्स्य' का अपभ्रंश मानते हैं । व्युत्पत्ति संदिग्ध अवश्य है। ४ भरतपुर में महाराज जवाहरसिंह तथा जयपुर में महाराजा माधोसिंह के पाथित रहे थे। ५ इनकी निजी पुस्तकशाला में अध्ययन और अनुसंधान करने का अवसर मिला तथा कई
अमूल्य, किन्तु अप्रकाशित पुस्तकें प्राप्त हुईं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org