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अन्यत्र भजने की बात चल रही थी। पू. श्री का आदेश प्राप्त कर तीन छोटी बहनों को साथ लेकर कन्याकुमारी क्षेत्र की ओर प्रस्थान करना पड़ा। सम्भवतः पू. श्री यह जानते थे कि वियोग को सहना अत्यन्त कठिन होगा। इसी बात को ध्यान में रख कर उन्होंने अपनी मधुर वाणी से मार्ग दर्शन देकर शीघ्र वापस आने का आदेश भी दिया। किंतु अपनी अल्पबुध्दि के कारण हम कुछ समझ नहीं सके। महान आत्मा का वियोग असहनीय है। पू. श्री की वाणी का एक एक शब्द आज भी मार्ग दर्शन प्रदान करता रहता है।
पू. महासती श्री चम्पाकुंवरजी म. सा. का जन्म कुचेरा के सुराणा परिवार में हुआ था। सात वर्ष की अल्प ही वैराग्य के बीज आप में अंकरित होने लगे थे। आपश्री के सांसारिक भूआजी (प.श्री कानकुंवरजी म.सा.) की दीक्षा कुचेरा में हो रही थी, उसी समय छोटी-सी अवस्था में ही संसार त्यागने की प्रबल भावना जाग उठी देखकर परिवार वालों ने उन्हें कटंगी भिजवा दिया था। समय के साथ साथ उनकी यौवनावस्था को देखकर परिवार वालों ने उन्हें सांसारिक बंधनों में जकड़ने की दृष्टि से श्री रामलाल जी कातेला के साथ विवाह कर संतोष की सांस ली। वैवाहिक जीवन के अल्प समय के पश्चात ही वैधव्य का दारुण दुःख आ पड़ा।
संसार की विचित्रता ने वैराग्य के सूखे पौधे को पुन: हराभरा कर दिया। निरन्तर ज्ञान ध्यान में रत, सामायिक, प्रतिक्रमण, थोकड़े, स्वाध्याय, ढाल आदि अनेक विध प्रयासों से ज्ञान ज्योति प्रज्ज्वलित करते रहे। वैराग्य की उत्ता तरंगों ने पू. गुरुवर्या श्री कानकुंवर जी म. सा. के पास शिष्या रूप में रहने का दृढ़ संकल्प लिया और निरन्तर प्रयास से मुक्तिपथ का मार्ग प्रशस्त हुआ।
सात वर्षों तक मौन व्रत ग्रहण का शास्त्रों का अध्ययन और थोकड़ों के अभ्यास पर अधिक ध्यान दिया। आपके प्रवचन में जीवन जीने की कला कैसी हो, इस बात पर विशेष प्रकाश डाला जाता था। साथ ही अपने प्रवचनों में आप शास्त्रीय उद्धरण प्रस्तुत कर उसे अधिक पुष्ट बनाया करती थी। आपकी . प्रवचन शैली इतनी आकर्षक थी कि श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे।
__ पू. गुरुवर्या के साथ आपने मारवाड़, मेवाड़, मालवा, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु प्रदेशों में विचरण कर जन जन को जागृत कर धर्ममय बनाया।
मद्रास आपका अंतिम पड़ाव सिद्ध हुआ। पू. गुरुवर्या, वयोवृद्धा श्री कानकुंवरजी म. सा. की अस्वस्थता के कारण मद्रास में स्थिर रहने के लिए बाध्य कर दिया। पू. गुरुवर्या की निरन्तर सेवा के साथ साथ जन मन में जागृति का अभियान अबाध गति से चल रहा था।
कन्या कुमारी की ओर प्रस्थान के समय अस्वस्थता के कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। हम भी शीघ्रातिशीघ्र वापस आ रहे थे कि अचानक मार्ग में पू. श्री. के वियोग के समाचार ने हम सभी को असहाय बना दिया। विधि के अटल नियमों ने असीम उपकारी की छाया से हमें वंचित कर दिया।
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा की वह रात्रि सभी के लिए दुःखदाई बन गई। सांध्य प्रतिक्रमण के पश्चात बहनों के साथ ज्ञानचर्या करते करते ही अचानक सिर में दर्द उठा और सभी के लिए सिरदर्द बनकर रह गया। त्याग प्रत्याख्यान के साथ संथारा ग्रहण कर समाधि मरण के साथ परलोक के लिए प्रस्थान कर गए। पू. गुरुवर्या की सेवा करते करते शिष्या ने मार्ग प्रशस्त कर लिया।
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