________________
विषय-परिचय
४७
इसलिए जहाँ जिस पद से जो विशेष अर्थ लिया गया हो, वहाँ उसे जानकर ही उसका ग्रहण करना चाहिए। ___यहाँ प्रसंग से एक बात और कह देनी है। वह यह कि पाँच ज्ञानावरण आदि ४७ प्रकृतियों का बन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्ति होने तक संक्लेशरूप और विशुद्धिरूप दोनों प्रकार के परिणामों से सदा काल होता रहता है, इसलिए उन्हें ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ कहा गया है। वे सैंतालीस प्रकृतियाँ ये हैं
घादितिमिच्छकसाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णाओ।
सत्तेतालधुवाणं चधुदा सेसाणयं तु दुधा ॥१२४॥ (गोम्मटसार, कर्मकाण्ड) मोहनीय के विना तीन घातिक कर्मों की १६ प्रकृतियाँ, मिथ्यात्व, १६ कषाय, भयद्विक, तैजसद्विक, अगुरुलघुद्विक, निर्माण और वर्णचतुष्क ये ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं।
इस प्रकार यहाँ हमने 'महाबन्ध' के प्रस्तुत भाग का सामान्य परिचय कराते हुए कुछ विशेष विषयों की ही पर्यालोचना की है। शेष विषयों का यथास्थान विशेष ऊहापोह मूल में किया ही है। यहाँ हमने पुनरुक्ति दोष के भय से पुनः उनकी पर्यालोचना नहीं की है।
प्रस्तुत मुद्रित भाग में मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध का और उत्तरप्रकृतिबन्ध के एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगमतक के विषय का समावेश ही किया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org