Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 385
________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे १६६. मदि०-सुद० धुविगाणं तिरिक्खगदितिगस्स च ओरालि ० मूलोघं । सादासा०-सत्तणोक०-णिरयगदि-चदुजादि-पंचसंठा ० - वस्संघ० -- णिरयाणु ० - आदा-उज्जो० - अप्पसत्थवि० - थावर - सुहुम - अपज्जत्त-साधार०-०--थिराथिर -- सुभासुभा - दूर्भाग-दुस्सर० - अणादे००-जस०० अंजस उक्क० अणु० जह० एग०, उक० अंतो० । मणुसग० - मणुसाणु० उक्क० ओघं । ऋणु० जह० एग०, उक्क० एकतीसं सा० सादिरे० । देवग दि-वेजव्वियस०-समचदु० - वेडव्वि ० अंगो०- देवाणु ० - पसत्थवि ० - सुभग- सुस्सरआदे० उच्चा० उक्क० श्रघो । अणु० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलि देन० । पंचिंदि० - ओरालि • अंगो० पर० - उस्सा ० -तस०४ उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । ३३२ १६६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ, तिर्यञ्चगति त्रिक और औदारिक शरीर इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, सात नोकषाय, नरकगति, चार जाति, पाँच संस्थान, छह संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । पञ्चेन्द्रियजाति, श्रौदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास और त्रस चतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । I मनुष्य यु विशेषार्थ - ओघसे ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कह श्राये हैं । यह काल एकेन्द्रियोंकी कायस्थितिकी मुख्यतासे कहा गया है । मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानका भी यही काल है। यही कारण है कि इन दोनों अज्ञानोंमें उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उक्त काल कहा है । एकेन्द्रियोंके श्रदारिक शरीरका नियमसे बन्ध होता है, इसलिए इसके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी यही उत्कृष्ट काल कहा है । जिस मिथ्यादृष्टि मनुष्यने मरणके पूर्व अन्तर्मुहूर्त काल तक मनुष्यगति और गत्यानुपूर्वीका बन्ध किया है और मरकर जो अन्तिम ग्रैवेयक में इकतीस सागरकी वाला मिथ्यादृष्टि देव होकर इनका बन्ध करता रहता है, उसके इन दोनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका साधिक इकतीस सागर काल उपलब्ध होता है । इसीसे इन दोनों अज्ञानोंमें उक्त दोनों प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । तीन पल्यकी युवाले तिर्यञ्च या मनुष्यके पर्याप्त अवस्थामें देवगति आदि दस प्रकृतियों का नियमसे बन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । जो मिथ्यादृष्टि मनुष्य या तिर्यश्च मरणके पूर्व १. मूलप्रतौ - सुभासुभसुभगभग- इति पाठः । कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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