Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 434
________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ३८१ २३४. तस २ पंचिंदियभंगो । णवरि उक्क० हिदि. जह• अंतो०, उक्क० अप्पप्पणो कायहिदी० । तिगिण आयु० उक्क. हिदि० जह० पंचिंदियभंगो । उक्कल कायहिदी० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । मणुसायु० उक्क० अणु० ओघं । णवरि कायहिदी० । अपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २३५. पंचमण-पंचवचि० चदुअआयु०-आहार०२-तित्थय० उक. अणु० णत्थि अंतरं । सेसाणं उक्क०.णत्थि अंतरं । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतोमु. ? २३६. कायजोगीसु णिरय-देवायु-आहार २ उक्क. अणु० पत्थि अंतरं । तिरिक्वायु० उक्क० हिदि० पत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं। मणुसायु. उक० २३४. त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें पञ्चेन्द्रियों के समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी कायस्थिति प्रमाण है। तीन आयुओंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर पञ्चन्द्रिय जीवोंके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। मनुघ्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कायस्थिति प्रमाण है। त्रस अपर्याप्त जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-त्रसकायिक और प्रसकायिक पर्याप्त जीवोंकी कायस्थितिका उल्लेख अनेक बार कर आये हैं । उसे ध्यानमें रखकर यहां जो अन्तर कायस्थिति प्रमाण कहा है वह जान लेना चाहिए । नरकायु, तिर्यश्चायु और देवायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है सो इसका स्पष्टीकरण यह है कि त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीव सौ सागर पृथक्त्वके बाद अवश्य ही नारकी, तिर्यश्च और देव होता है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २३५. पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में चार आयु, आहारक द्विक और तोर्थ कर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-पांचों मनोयोगों और पांचों वचनयोगोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा इनमें मध्यमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है। इसीसे इनमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंके सिवा शेष प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । पर इस प्रकार एक योगमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए उसके अन्तरकालका निषेध किया है। अब रहीं प्रथम दण्डकमें कही गई चार आयु आदि सात प्रकृतियाँ सो इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। कारणका विचार स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए। २३६. काययोगी जीवोंमें नरकायु, देवायु और आहारक द्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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