Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 459
________________ महाबंधे टिदिबंधाहियार माए । वरि मराहिदी आणिदनमा गुसदितिगं सदभंगो । विदियादि याव बहि त्ति उक्कस्सभंगा। रणवरि थीणगिद्धितियं मिच्छतं अणंताणुवंधि०४ जह० अज०जह० अंतो०, उक्क तिरिण-सत्त-दस-सत्तारस-बावीसं साग० देसू० । सत्तमाए एवं चेय णादव्वं । णवरि तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०-उज्जो०-णीचा० जह० अज० थीणगिद्धितियभंगो । मणुसगदितिगं इत्थिभंगो। २६३. तिरिक्खेमु पंचणा०-छदंस०-सादासा०-अट्टक०-सत्तणोक०-पंचिंदि०मुहूर्त है। इसी प्रकार पहली पृथि में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा मनुष्यगति त्रिकका भङ्ग साता प्रकृतिके समान कहना चाहिए। सरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे कुछ कम तीन सागर, कुछ कम सात सागर, कुछ कम दस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम बाईस सागर है। सातवीं पृथिवीमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर स्त्यानगृद्धित्रिकके समान है। तथा मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है। विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंमें असंज्ञी जीव मरकर उत्पन्न होता है और ऐसे नारकी जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम व द्वितीय समयमें जघन्य स्थितिबन्ध होता है। इसीसे यहाँ दो आयु और तीर्थङ्कर प्रकृतिके सिवा शेष सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। इनके इसके सिवा पाँच शानावरण आदि ४८ प्रकृतियोंका निरन्तर अजघन्य स्थितिबन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य स्थितिवन्धके अन्तर कालका भी निषेध किया है। नरकमें सम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है और सम्यग्दृष्टिके स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर यहाँ स्त्रीवेद आदि बाईस प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। उच्चगोत्रका सातवे नरकमें मिथ्यादृष्टिके बन्ध नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे इसके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है। तथा ये सब सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। प्रथम नरकमें यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इसमें सब प्रकृतियोंका कथन सामान्य नारकियोंके समान कहा है । मात्र जहाँ कुछ कम तेतोस सागर कहा है वहाँ प्रथम नरककी स्थितिको ध्यानमें रखकर अन्तर कहना चाहिए। तथा यहाँ मनुष्यगतित्रिकका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सम्यगदृष्टि दोनोंके होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल साता प्रकृतिके समान कहा है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक उत्कृष्टके समान अन्तरकाल होनेका कारण यह है कि इन पृथिवियोंमें असंशी जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता। जिन प्रकृतियोंके सम्बन्धमें विशेषता है वह अलगसे कही ही है सो विचार कर जान लेना चाहिए। २६३. तिर्यञ्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, पाठ कषाय, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494