Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 477
________________ ४२४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे देवायु० - तेजा ० - ० - वरण ०४ - गु० - उप० णिमि० - पंचंत० जह० अज० णत्थि अंतरं । सादा० - पुरिस [०-हस्स-रदि- वेडव्वियछ ० - चदुजादि - समचदु० - वज्जरिसभ ० - पर० - उस्सा० उज्जो०-पसत्थ०-तस०-बादर- मुहुम-पज्जत्तापज्जत्त पत्तेय० - साधारण-थिरादिछक - णीचुच्चा० ज० द्विदि० णत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । असादा०इत्थि० - ० -- अरदि -- सोग - पंचसंठा०--पंच संघ ० - अप्पसत्थ० अथिरादिक० जह० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० सू० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । तिरिक्ख - मणुसायु० रियोघं । एइंदि० - आदाव - थावर० जह० जह० अंतो०, उक्क० बेसाग० सादि० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । दोगदि ओरालि० -ओरालि ०अंगो० - दो० ज० ट्ठि० रात्थि अंतर । अ० ज० एग०, उक्क० अंतो० । जुगुप्सा, नरकायु, देवायु, तैजसशरीर, कार्मणशरीर वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, वैक्रियिक छह, चार जाति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, परघात, उल्लास, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण, स्थिर आदि छह, नीच गोत्र और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर सामान्य नारकियोंके समान है । एकेन्द्रिय जाति, श्रातप और स्थावर के जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दो गति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग और दो आनुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ—विभङ्गज्ञानमें नरकायु और देवायुके सिवा प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए यहाँ इनके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है, यह तो स्पष्ट ही है । इसी प्रकार इनके अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका यथायोग्य प्रभाव जान लेना चाहिए। सातावेदनीय आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध संयमके अभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । इनके अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल स्पष्ट ही है। जो नारकी भवके प्रारम्भ में पर्याप्त होने पर असातादि प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध करके पुनः भवके अन्त में बन्ध करता है, उसके इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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