Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 475
________________ ४२२ महाबंधे ट्ठिदिबंघाहियारे अंतर । णवरि माणस्स कोधसंज० अज. जह० एग०, उक्क० अंतो० । एवं मायाए दो संजल०, लोभ० [चत्तारि ] संजल० । सेसाणं जह० हिदि० पत्थि अंतर। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । २८२. मदि-सुद० पंचणा-णवदंसणा-सादासा-मिच्छ०-सोलसक-अहणोक०-पंचिंदिय-तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस-अजस-णिमि०-पंचंत० जह• हि० जह० अंतो०, उक्क० असंखेजा लोगा। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । णबुंस-ओरालि० कषायमें क्रोध संज्वलनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार माया कषायमें दो संज्वलनोंका और लोभकषायमें चार संज्वलनोंका अन्तरकाल जानना चाहिए। तथा चारों कषायोंमें शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-चारों कषायोंमें चारों आयुओंका अजघन्य स्थितिबन्ध अन्तरके साथ दो वार सम्भव नहीं है और जघन्य स्थितिबन्ध एक बार ही होता है, इसलिए तो इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया। और क्षपक प्रकृतियों और आहारकद्विकका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपक श्रेणिमें होता है। साथ ही उपशम श्रेणिमें कषायोंके रहते हुए क्षपक प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती। यद्यपि आहारकद्विककी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, पर उपशमश्रेणि पर चढ़ते और उतरते हुए कषायमें परिवर्तन होता है और उपशान्तमोहमें कषायका अभाव हो जाता है, इसलिए इन चारों कषायोंमें न तो क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध होता है और न आहा रकद्विकके ही जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल उपलब्ध होता है; इसलिए यहाँ इसका निषेध किया है। यहाँ शेष प्रकृतियोंका एक कषायमें दो बार जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। पर जिसके एक कषायमें कमसे कम एक समयके लिए और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है, उसके अन्य सब प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । यहाँ मानकषायमें क्रोधसंज्वलनके, मायाकषायमें क्रोध और मान संज्वलनके और लोभकषाय क्रोध, मान माया और लोभ संज्वलनके अजघन्य स्थितिबन्धका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है ,वह उपशमश्रेणिमें मरणकी अपेक्षासे जानना चाहिए । कारण स्पष्ट है। २८२. मत्यज्ञान और श्रुतज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, आठ नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नपुंसकवेद, औदारिकशरीर, पाँच संस्थान, औदारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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