Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 473
________________ ४२० महाबंधे टिदिबंधाहियारे २७६. णवूस० पंचणा०-चदुदंस०-चदुसंज-पंचंत० जह० अज० पत्थि अंतर। थीणगिद्धि०३-मिच्छ ०-अयंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवूस०--पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थवि०-भग-दुस्सर-अणादे०-णीचा. जह० हिदि. ओघं । अज. जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं० देसू० । णिद्दा-पचला-असादा०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुपंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्थवि-तस०४-थिराथिर-सुभामुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-अजस-णिमि० जह• जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सादा०-पुरिस-जस० जह• अज० ओघं । दो आयु०-वेउव्वियछक्का-मणुसगळ-मणुसाणु० ओघं। तिरिक्खायु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अज० अोघं । देवायु तिरिक्खोघं । तिरिक्खग०तिरिक्खाणु०-उज्जो०-णीचा. जह• हिदि० जह० अंतोमु०, उक्क. अणंतकालं । तथा उपशमश्रेणिमें मरणकी अपेक्षा तीर्थङ्कर प्रकृतिके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तोत्पर्य यह है कि जो उपशमश्रेणिमें एक समयके लिए अबन्धक होकर मरता है और देव होकर पुनः बन्ध करने लगता है, उसके एक समय अन्तरकाल उपलब्ध होता है और जो अन्तर्मुहूर्त प्रबन्धक होकर मरता है और देव होकर पुनः बन्ध करने लगता है, उसके अन्तर्मुहूर्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है । आहारकद्विकका भी जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें उपलब्ध होता है। इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। तथा शेष कथन स्पष्ट ही है। २७६. नपुसकवेदमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध का अन्तरकाल अोधके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । निद्रा, प्रचला, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सातावेदनीय, पुरुषवेद और यश-कीर्तिके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोधके समान है । दो आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। तिर्यञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अोधके समान है। देवायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तिर्यञ्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तरमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर अनुत्कृष्टके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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