Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 476
________________ जहराणडिदिबंध अंतरकालपरूवणा ४२३ पंचसंठा० - ओरालि० अंगो० - इस्संघ० - अप्पसत्थ० - दूर्भाग- दुस्सर - अणादे० ज० ट्ठि० घं । अज० जह० एग०, उक्क० तिरिण पलिदो० देसू० । चदुआयु- वेड व्वियछकमणुसग ० - मणुसा० ओघं । तिरिक्खगदि-तिरिक्खाणु० उज्जो० जह० द्विदि० श्रघं । अज० जह० एग०, उक एकतीसं साग० सादि० । चदुजादि आदाव थावरादि ०४ जह० ज० एवं सगभंगो । खीचागो० ज० ट्टि० श्रघं । अज० जह० एग०, तिरिण पलिदो० दे० | उच्चा० जह० ज० जह० अंतो० एग०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । उक्क० 1 २८३. विभंगे पंचणा० एवदंसणा०--मिच्छत्त- सोलसक० -भय- दुगु० -- णिरयश्राङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका अन्तरकाल के समान है । अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुव्यगति और मनुष्यगत्यानुपूर्वीके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर ओघ के समान है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रधके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । चार जाति, आतप और स्थावर आदि चार प्रकृतियोंके जघन्य और जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नपुंसकवेदके समान है । नीचगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल श्रोघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । उच्चगोत्र के जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनों का असंख्यात लोक प्रमाण है । 1 विशेषार्थ - इन दोनों अज्ञानोंमें प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबन्ध बादर एकेन्द्रिय पर्यातक जीवोंके होता है और इनकी कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है । यहाँ कार्यस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें जघन्य स्थितिबन्ध करा कर यह अन्तरकाल लेना चाहिए । नपुंसकवेद श्रादि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका भोगभूमिमें बन्ध नहीं होता, इसलिए यहाँ उनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका कुछ कम तीन पल्य अन्तरकाल कहा है । यहाँ इन प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबन्धका यह अन्तरकाल इसी प्रकार कहा है । यह तीन पल्य में कुछ कम कहा यह विचारणीय है । नीचगोत्रके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए । तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंका बारहवें कल्पके ऊपर बन्ध नहीं होता और वहाँ दोनों अज्ञानोंका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । इसीसे यहाँ उक्त प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल सांघिक सागर कहा है । ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ होनेसे यह साघिक काल बन जाता है। जिस बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवने कार्यस्थितिके आदि में और अन्तमें उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध किया उसके तो इसके जघन्य स्थितिबन्धका असंख्यात लोक प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है तथा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके इसका बन्ध नहीं होनेसे जघन्य स्थितिबन्धका उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है। इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २८३. विभङ्गज्ञानमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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