Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 457
________________ ४०४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे एक समय कम शुल्लकभव ग्रहण प्रमाण कहा है। तथा त्रस पर्याप्तकी उत्कृष्ट कायस्थिति दो हजार सागर है और एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है इतने कालके भीतर तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध नियमसे नहीं होता। यहां एक ऐसा जीव लो जिसने तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबध किया है । इसके बाद वह कमसे त्रस पर्याप्त हो गया और अपनी कायस्थितिके भीतर उसने तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध नहीं किया। पुनः वह पर्याप्त एकेन्द्रियोंमें संख्यात हजार वर्षतक परिभ्रमण करता रहा। इसके बाद वह अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता है और तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध करता है, इसलिए यहां तियञ्चायुके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो हजार सागर कहा है। एक बार आयुबन्धके बाद पुनः दूसरी बार आयुबन्धमें कमसे कम अन्तमुहूर्त काल लगता है, इसलिए तिर्यञ्चायुके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा एक जीवके निरन्तर यदि तिर्यञ्चायुका बन्ध नहीं होता है तो सौ सागर पृथकत्व कालतक नहीं होता, इसके बाद वह नियमसे तियश्चायुका बन्ध करता है, इसलिए इसके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण कहा है। मनुष्यगतिका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए यहां मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। शेष खुलासा तियञ्चायुके समान है। वकियिक छहके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहर्त है और जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है। तथा एकेन्द्रियों और विकलत्रयमें अनन्त कालतक परिभ्रमण करते हुए इनका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है। तिर्यञ्चगति आदि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध अनन्त काल तक नहीं होता और अजघन्य स्थितिबन्ध एक सौ त्रसठ सागर कालतक नहीं होता । इसीसे इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ प्रेसठ सागर कहा है। शेष बुलासा कि यक पटकके समान है। अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगतिद्वि काका बन्ध नहीं होता और इनकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है, इसीसे इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। शेष स्पष्टी करण वैक्रियिकपटकके समान है । सूक्ष्म जीवोंकी कायस्थिति असंख्यात लोकप्रमाण है। इनके चार जाति आदि नौ प्रकृतियोंका ओघ जघन्य स्थितिबन्ध नहीं होता और इनका अजघन्य स्थितिवन्ध एक सौ पचासी सागर कालतक नहीं होता। इसीसे इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाग और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ पचासी सागर कहा है। एक जीव जो छठवें नरकमें बाईस सागर प्रमाण आयुके अन्तमें वेदक सम्यग्दृष्टि हुआ। पुनः कुछ कम छयासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो गया। पुनः कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण काल तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें इकतीस सागरप्रमाण आयुके साथ नौ ग्रैवेयकमें उत्पन्न हुआ। उसके एक सौ पचासी सागर काल तक चार जाति आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होनेसे इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। तथा इसमेंसे प्रारम्भके बाईस सागर कम कर देने पर तिर्यञ्चगति आदि तीन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिवन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल उपलब्ध होता है। शेष अन्तर कालका स्पष्टीकरण वैक्रियिकपटकके समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके औदारिक शरीर आदि तीन प्रकृतियोंका ओघ जघन्य स्थितिबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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