Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 456
________________ जहरपट्ठिदिबंध अंतर कालपरूवणा विशेषार्थ - पाँच ज्ञानावरण आदि बाईस प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । इनके ज धन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपशमश्रेणिकी अपेक्षासे कहा है । तात्पर्य यह है कि जो जीव उपशमश्रेणिमें इन प्रकृतियोंका कमसे कम एक समयके लिए और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए श्रबन्धक होकर पुनः इनका बन्ध करता है उसके इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है । निद्रा आदि बत्तीस प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका बन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालके बाद होता है, क्योंकि अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है और बादर पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल श्रसंख्यात लोक प्रमाण है, इसलिए इन प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। तथा इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए स्त्यानगृद्धि तीन आदि नौ प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है और बादर पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छयासठ सागर है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण कहा है। मात्र स्त्रीवेद सप्रतिपक्ष प्रकृति है, इसलिए इसका यह अन्तर काल साधिक दो छ्यासठ सागर बन जाने से वह उक्त प्रमाण कहा है। अप्रत्याख्यानावरण चार और प्रत्याख्यानावरण चार इन आठ कषायका यह अन्तर काल अपनी विशेषताको ध्यान में रखकर इसी प्रकार प्राप्त होता है । मात्र संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि प्रमाण होने से इनके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । नपुंसक वेद आदि सोलह प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कातक और अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण कालतक नहीं होता, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है । इसका स्पष्टीकरण पहले किया ही है। तथा इनका जघन्य स्थितिबन्ध कमसे कम एक समय तक नहीं होता, और अधिक से अधिक छयासठ सागर और कुछ कम तीन पल्य काल तक नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो छ्यासठ सागर तथा कुछ कम तीन पल्य कहा है । देवायु और नरकायुका जघन्य स्थितिबन्ध पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष कहा है और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है, इसलिए इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल कहा है । इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट हो है । तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध क्षुल्लकभवग्रहण प्रमाण है । और इसमेंसे एक समय जघन्य स्थितिबन्धमें लगता है इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर Jain Education International ४०३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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