Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 462
________________ ४०९ जहराणट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा २६५. मणुस ३ पंचणा-छदंसणाo--चदुसंज०--भय-दुगु-तेजा.-क०-- वएण०४-अगु०-उप-णिमि-तित्थय ०-पंचंत० जह• हिदि० पत्थि अंतरं। अज० जह० उक्क० अंतो० । थीणगिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणुवधि०४ जह० हिदि.'णत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह• अंतो०, उक्क० तिगिण पलिदो० देसू । एवं इत्थि० । णवरि अज० एग० । अट्ठक० जह• पत्थि अंतरं । अज० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी देस० । सादासा०-पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-देवगदि-पंचिंदि०वेउवि०-समचदु०-वेउवि०अंगो०-देवाणु०-पर-उस्सा०-पसत्थ-तस०४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस०-अजस०-उच्चा० जह० हिदि० पत्थि अंतरं । अज० जह० एग०, उक्क०] अंतो० । णवुस०-तिरिक्व-मणुसगदि-चदुजादि-अोरालि०-पंचसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोआणु०-आदाउज्जो -अप्पसत्थ०--थावरादि०४-दूभग-दुस्सर-अण्णादे०-णीचा. जह• हिदि. णत्थि अंतर । अज० द्विदि० जह० एग०, उक्क० पुचकोडी देसू० । तिएिणआयु० जह० हिदि० णत्थि अंतर । अज० हिदि. जह• अंतो०, उक्क० पुचकोडितिभागं देसू० । मणुसायु० जह० २६५. मनुष्यत्रिकमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तरर्मुहूर्त है । स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। आठ कषायोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवानुपूर्वी, परघात, उछास, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयशःकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, श्रातप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तीन आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिका कुछ कम विभाग प्रमाण है। मनुष्यायुके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर १. मूलप्रतौ हिदि० जह० त्थि इति पाठः । ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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