Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 466
________________ जहएणहिदिबंधनंतरकालपरूवणा ४१३ पंचिंदि०--उव्विय-तेजा-क०---समचदु०-वउव्वि०अंगो०--वएण०४-देवाणु०अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-अजस-णिमि० जह• हि० जह० अंतो०, उक्क० कायहिदी० । अज० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पवरि देवगदि०४ अज० उक्क० तेत्तीसं साग. सादि० । गैरइय-देवायु० जह हिदि० जह० दसवस्ससहस्साणि सादि०, उक्क० कायहिदी० । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० कायहिदी० । अज. सव्वाणं उक्कभंगो। पज्जत्तगे तिरिक्ख-मणुसायु० जह• पत्थि अंतर। अज० पगदिअंतर । आहार०२ जह० पत्थि अंतर। अज. जह• अंतो०, उक० कायहिदी० । सेसाणं उक्कस्सभंगो । पंचिंदियअपज्जत्त० तिरिक्ख-मणुसायु० जह० जह० खुद्दाभव० समयू०, उक्क० अंतो० । अज० जह० उक्क० अंतो० । सेसं उक्कस्स गो। शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है. और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है । तथा सबके अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर उत्कृष्टके समान है। पर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चाय और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। आहारकद्विकके जघन्यस्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, और उत्कृष्ट अन्तर कायस्थितिप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्यस्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्ट के समान है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें क्षपक प्रकृतियों और तीर्थङ्कर प्रकृतिका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । यहाँ निद्रा आदि प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे असंशी जीवके होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अपनी-अपनी कायस्थिति प्रमाण कहा है। यहाँ कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्त में असंशियों में उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट अन्तरकाल ले आना चाहिए। देवगतिचतुष्कका देवोंके और नारकियोंके बन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है । मात्र इनके सिवा निद्रादि शेष प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिके बन्धमें अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्तका अन्तर पड़ता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494