Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 468
________________ जहएणठिदिबंधअंतरकालपरूवणा ४१५ अंतरं । तिरिक्खायुः जह० हिदि तिरिक्खोघं । अज० अणुक्कस्सभंगो । मणुसा० मूलोघं । तिरिक्खगदि०४ एइंदियभंगो। मणुसग०-मणुसाणु० जह• जह०. अंतो०, अज० जह० एग०, उक्क० दोगणं पि असंखेज्जा लोगा। एवं उच्चा । वरि जह० णत्थि अंतरं। सेसाणं जह० हिदि० जह• अंतो०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जह० एग०, उक्क अंतो। २७४.ओरालियका० खवगपगदीणं णेरइय-देवायु-आहारदुग-तित्थय० जह० अज० पत्थि अंतरं । सादासादा०-पुरिस-वेउव्वियछक्क-जसगि० जह० पत्थि अंतरं । अज० [जहएग०, उक्क० अंतो । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० हिदि पत्थि अंतरं । अज'. पगदिअंतरं । तिरिक्खगदि०४ जह० हिदि० जह• अंतो०, उक० तिषिण वाससहस्साणिं देसू। अज० जह० एग०, उक्क अंतो० । सेसाणं जह० जह० का अन्तरकाल नहीं है । तिर्यञ्चायके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल अनुत्कृष्टके समान है। मनुष्यायुके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल मूलोघके समान है। तिर्यञ्चगति चारके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल एकेन्द्रियोंके समान है। मनुष्यगति और मनुष्य: गत्यानुपूर्वीके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनोंका ही असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार उच्चगोत्रका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अंन्तर असंख्यात लोकंप्रमाण है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ--काययोगी जीवोंके प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध क्षपकश्रेणिमें होता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है। परन्तु जो जीव कार्ययोगमें उपशमश्रेणिमें इनका कमसे कम एक समयके लिए और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहर्त के लिए प्रबन्धक होकर और मरकर देव होनेपर काययोगके सद्भावमें ही पुनः इनका बन्ध्र करने लगता है, उसके इनके अजघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त उपलब्ध होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। २७४. औदारिककाययोगी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियाँ,नरकाय, देवायु,आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, पुरुषवेद, वैक्रियिक छह और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कर अन्तर अन्तमुहर्त है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिवन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। तिर्यञ्चगति चारके जघन्य स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन हजार वर्ष है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहूर्त है १. अज० जह० पगदि- इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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