Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 444
________________ उस्सट्ठि दिबंध अंतर कालपरूवणा ३९१ २४८. मरणपज्ज० पंचरणा० छदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस०-भय-दुगु० - देवर्गादिपंचिंदि० - वेउब्वि ० -तेजा० - क० - समचदु० - वेउच्चि ० अंगो० वर० ४ देवाणु ० - अगुरु०४पसत्यवि ० -तस० ४ - सुभग- सुस्सर - आदे० - णिमि० -- तित्थय० उच्चा०-- पंचत० उक्क० द्विदि० रात्थि अंतरं । अणु० जह० उक्क० अंतो० । सादा०-हस्स- रदि- थिर-मुभ विशेषार्थ -- उक्त तीन ज्ञानोंमें पाँच ज्ञानावरण आदि ५२ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए यहाँ इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। तथा जो सातवें श्रादि गुणस्थानोंमें कमसे कम एक समय के for और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिए इनका प्रबन्धक होकर पुनः मरणकर या उतरकर इनका बन्ध करता है, उसके इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपलब्ध होता है, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । सातावेदनीय आदि छह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यहाँ स्वस्थानवर्ती जीवके होता है और आभिनिबोधिक आदि तीनों शानोंका उत्कृष्ट काल साधिक छ्यासठ सागर है, इसलिए यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छयासठ सागर कहा है । इन तीन शानोंका उत्कृष्ट काल चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर बतलाया है। उसे देखते हुए मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक छयासठ सागर बन जाता है, पर देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम छ्यासठ सागर ही उपलब्ध होता है; इसलिए यहाँ मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक छ्यासठ सागर और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है । इनके आठ कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध भी मिथ्यात्वके श्रभिमुख हुए जीवके होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। सम्यग्दृष्टि देवके मनुष्यगति पञ्चकst नियमसे बन्ध होता है । यह मनुष्योंमें कमसे कम वर्षपृथक्त्व प्रमाण और अधिक से अधिक पूर्वकोटि प्रमाण श्रायुके साथ उत्पन्न हुआ और मरकर पुनः देव हो गया। तो इसके मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटिप्रमाण उपलब्ध होता है । इसीसे यहाँ यह अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। देवगतिचतुष्कका देव और नारकीके बन्ध नहीं होता । तथा नरकमें जाने के पहले और वहाँ से निकलने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका और भी बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि ये सप्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है । आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल दो प्रकारसे बतलाया है । प्रथम अन्तर काल उद्वेलनाकी विवक्षा न करके कहा गया है और दूसरा अन्तर काल उद्वेलनाकी विवक्षासे कहा गया है। शेष कथन सुगम है । २४८. मनःपयर्ययज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पश्ञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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