Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 448
________________ उकस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा सत्तारस-सत्तसाग० देमू । अणु० जह० एग०, उक्क. अंतो० । थीणगिद्धि ३मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०-णवुस-तिरिक्खग-पंचसंठा-पंचसंघ०--तिरि-- क्वाणु-उज्जो०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे-णीचा उक्क० णाणावभंगो। अणु० हिदि० जह• एग०, उक्क० सत्तारस-सत्तसाग० देसू० । णिरय-देवायु० उक्क० अणु. पत्थि अंतर। तिरिक्ख-मणुसायु० किएणभंगो। णिरयगदिदेवगदि-चदुजादि-दोआणु०-आदाव-थावरादि०४ उक्क. हिदि० पत्थि अंतर । अणु० जह• एग०, उक्क० अंतो। वेउव्वि-वेउव्वि०अंगो० उक्क० णस्थि अंतर । अणु० जह० एग०, उक्क सत्तारस-सत्तसाग० । तित्थय० उक्क० हिदि. जह० अंतो०, उक्क० तिएिण साग० सादि० । अणु० जह• एग०, उक्क अंतो० । णीलाए उक्क० पत्थि अंतर । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो। २५२. तेऊए पंचणा-छदंसणा-सादासादा-बारसक-पुरिस०-छएणोक०मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालिय-तेजा-क०-समचदु०--ओरालि अंगो०-वज्जरिसभ०-- वएण०४-मणुसाणु०-अगुरु०४-पसत्थ०--तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-सुस्सर-- अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर व कुछ कम सात सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यश्चगत्यानुपूर्व, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सत्रह सागर व कुछ कम सात सागर है। नरकायु और देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल कृष्ण लेश्याके समान है । नरकगति, देवगति, चार जाति, दो आनुपूर्वी, आतप और स्थावर आदि चोरके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्क्रष्ट अन्तर सत्रह सागर व सात सागर है। तीर्थर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। किन्तु नील लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। २५२. पीत लेश्यामें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेददनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, छह नोकषाय, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, औदारिक' शरीर प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी,अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति,त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर,आदेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति, निर्माण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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