Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 451
________________ ३९८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे जह० एग०, उक्क दो वि तेत्तीसं साग. सादि। आहार०२ उक्क. अणु० जह• अंतो०, उक्क तेत्तीसं साग० सादि० । २५५. घेदगे. पंचरणा०-छदंसणा०-चदुसंज-पुरिस-भय-दु०-पंचिंदिय-तेजा०क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-सुभग--सुस्सर--आदे०--णिमि०तित्थय-उच्चा०-पंचंत उक्क० अणु णत्थि अंतर। सादावे०-हस्स-रदि-थिर-सुभजस० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० छावट्टि० देसू०। अणु० अोघं । असादा०अरंदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० अोधिभंगो । दो आयु० उक्क० हिदि० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० छावहि साग० देसू० । अणु० अोधिभंगो। मणुसगदिपंचगस्स अोधिभंगो । देवगदि०४ उक्क० हिदि० णत्थि अंतर। अणु० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० तेत्तीसं साग० । आहार०२ उक्क० अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । _२५६. उवसम० पंचणा०-छदंसणा--असादा०-चदुसंज०-पुरिस-अरदि-सोगभय-दुगु-[पंचिंदिय०-तेजा-क०-समचदु०-वरण४-अगुरु०४--पसत्थवि०-तस०४-- अन्तर्मुहूर्त है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा दोनों ही उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतोस सागर है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। २५५. वेदक सम्यक्त्वमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है । साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ, और यश-कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है । असाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिशानके समान है। दो आयुओके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है। मनुष्यगति पञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अवधिज्ञानके समान है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक एक पल्यप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर तेतीस सागर है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। २५६. उपशम सम्यक्त्वमें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, असाता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयशःकीति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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