Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 450
________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधअंतरकालपरूघणा मिच्छ०-अणंताणुबंधि०४-इत्थि०--णबुस-पंचसंठा--पंचसंघ०-अप्पसत्थ०--द्भगदुस्सर-अणादे०-णीचा० उक्क० णाणावभंगो। अणु० जह० एग०, उक्क० एक्कत्तीसं सा० देसू । मणुसायु. देवभंगो । देवायु० उक्क. अणु० पत्थि अंतरं । आहार०२ उक्क० हिदि. पत्थि अंतर। अणु० हिदि० जह• उक्क० अंतो० । देवगदि०४ उक्क० पत्थि अंतर । अणु० जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि। २५४. भवसिद्धिया ओघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो । सम्मादिही. अोधिभंगो । खइगसम्मा० पंचणा०-छदसणा-सादासा-चदुसंज०-सत्तणोक०- पंचिंदियतेजा०-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-- सुस्सर-आदे०--जस०--अजस० --णिमि०-तित्थय०--उच्चा--पंचंत० उक्क० जह अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा. सादि० । अणु० ओघं । अहक० उक्क. पाणाव.. भंगो । अणु० ओघं । मणुस-देवायु० उक्क पत्थि अंतर । अणु० पगदिअंतर। मणुसगदिपंचगस्स उक्क हिदि. जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं साग० देम् । अणु० जह• एग०, उक्क. अंतो० । देवगदि०४ उक्क० जह० अंतो० । अणु उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर देवोंके समान है । देवायुके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। २५४. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। अभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टियों में अवधिशानियों के समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में पाँच झानावरण, छह दर्शनावरण, साता वेदनीय, असाता वेदनीय, चार संज्वलन, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति, अयशःकीर्ति, निर्माण,तीर्थङ्कर, उचगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्टस्थितिबन्धकाजघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर ओघके समान है। मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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