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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २४७. आभि०-सुद०-अोधि० पंचणा-छदसणा-असादा-चदुसंज०-पुरिसअरदि-सोग-भय-दुगु-पंचिंदि०-तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगुरु०४-पसत्यवि०. तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-मुस्सर-आदे०-अज०-णिमि०-तित्थय-उच्चागो०-पंचंत० उक्क.हिदि. णत्थि अंतरं । अणु जह• एग०, उक्क० अंतो० । सादावे-हस्सरदि-थिर-सुभ-जस० उक्क० हिदि० जह• अंतो०, उक्क० छावहि साग० सादि । अणु० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । मणुस-देवायु० उक्क० हिदि० जह० पलिदो० सादि०, उक्क० छावहिसाग० सादि । देवायु० छावहिसाग० देसू० । अणु. जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं० सा० सादि। अहक उक्क हिदि० णत्थि अंतरं । अणु० ओघं । मणुसगदिपंचगस्स उक्क० एत्थि अंतरं। अणु० जह० वासपुधत्तं०, उक्क पुवकोडी० । देवगदि.४ उक्क० हिदि पत्थि अंतरं । अणु. जह• अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि । आहार०२ उक्क. अणु० जह. अंतो०, उक्क० छावहिसा० सादि० तेत्तीसं सा० सादि । अथवा उव्वेल्लिज्जदि तदो उक्क० अणु० छावहिसा० सादि० दोहि पुव्वकोडीहि सादिरे । तीन प्रकृतियोंका बन्ध ऐशान कल्पतक होता है। इसीसे यहाँ इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो सागर कहा है । यहाँ भी प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर यह अन्तर काल ले आवे । शेष कथन सुगम है।।
२४७. ग्राभिनिबोधिकशानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पश्चे न्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशः. कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। साता वेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यश-कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर श्रान्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्य प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छ्यासठ सागर है ; किन्तु देवायुका कुछ कम छयासठ सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आठ कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल श्रोधके समान है। मनुष्यगति पाँचके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व है और उत्कृष्ट अन्तर एक पूर्वकोटि है। देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। आहारकद्विकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर और साधिक तेतीस सागर है। अथवा इनकी उद्वेलना करता है इसलिए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल दो पूर्वकोटि अधिक साधिक छयासठ सागर है।
१. मूलप्रतौ अणु० जह० प्रोघं इति पाठः ।
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