Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 441
________________ ३८८ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे २४४. कोधादि०४ मणजोगिभंगो। २४५. मदि०-सुद० पंचणा-णवदंस-सादासा-मिच्छत्त-सोलसक-अहगोक-पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वरण ४-अगुरु०४-पसत्थ०-तस०४-थिराथिरसुभासुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-जस:-अजस०-णिमि०-पंचंत. उक्क० हिदि० जह० अंतो०, उक्क० अणंतकालं । अणु० जह• एग०, उक० अंतो । णवुस०ओरालि०-पंचसंठा-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-अप्पसत्थ-दूभग-दुस्सर-अणादेपीचा० उक्क० डिदि० अोघं । अणु० जह• एग०, उक्क तिरिण पलिदो० देसू । चदुण्णायु०-वेउव्वियछ०-मणुसगळ-मणुसाणु०-उच्चा० मूलोघं। गवरि देवायु. उक्क द्विदि० जह० दसवस्ससहस्साणि पुवकोडी समयू०, उक्क० अणंतकालमसंखे । तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणुपु०-उज्जो० उक्क० ओघं । अणु हिदि० जह० एग०, उक्क० एकत्तीसं सा. सादि० । चदुजादि-आदाव-थावरादि०४ उक्क० हिदि० ओघं । अणु० हिदि० जह• एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि । २४४. क्रोधादि चार कषायवाले जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-मनोयोगका काल और चारों कषायोंका काल एक समान है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्धका अन्तरकाल मनोयोगी जीवोंके समान कहा है। २४५. मत्यज्ञानी, और ताज्ञानी जीवोंमें पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, साता और असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, पञ्चन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, अयश-कीर्ति, निर्माण और पांच अन्तरायके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। नपुंसकवेद, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल- ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका अन्तर काल मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य अन्तर दस हजार वर्ष और एक समय कम एक पूर्वकोटि है । तथा उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतके उत्कृष्ट स्थितिवन्धका अन्तरकाल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है। चार जाति, आतप और स्थावर आदि चारके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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