Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 445
________________ ३९२ महाबँधे द्विदिबंधारियारे जस० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० goaकोडी सू० । अणुक्क० ओघं । असादा--अरदि-सोग-अथिर असुभ अजस० उक्क० पत्थि अंतरं । अणु० श्रघं । देवायु उक्क० हिदि० पत्थि अंतर । अणु० पगदिअंतरं । आहार०२ उक्क० जह० तो०, उक्क० पुञ्चकोडी देनू ० | ऋ० जह० उक्क० अंतो० । एवं संजदा० । सामाइ० - छेदो० धुविगाणं उक्क० अ० हिदि पत्थि अंतरं । सेसारणं मणपज्ज - भंगो | एवं परिहारे । मुहुमसंप० सव्वपगदीणं उक्क० अ० णत्थि अंतरं । संजदासंजद० परिहारभंगो । २४६. असंजदेसु पढमदंड ओघं । वरि अक० धुविगाणं सह भाणि - दव्वं । थी गिद्धि ३ - मिच्छ० - असंतारबंधि०४ - इत्थि० एस० - तिरिक्खगदि--पंचसंठा० - पंच संघ० - उज्जो० - तिरिक्खाणु' १०-- अप्पसत्थ०- -- दूभग- दुस्सर - अरणादे०-णीचा० उक्क० द्विदि० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सू० । और यशःकीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शोधके समान है । असातावेदनीय, रति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकोर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है । देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तर के समान है । श्राहारकद्विकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिए। सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मन:पर्ययज्ञानी जीवोंके समान है । इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संयत जीवोंके जानना चाहिए। सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है । संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग परिहार विशुद्धिसंयत जीवोंके समान है । विशेषार्थ - मन:पर्ययज्ञानीके प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंयम अभिमुख होने पर होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । इसी दृष्टिसे असातावेदनीय आदि छह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तर कालका निषेध किया है । यहाँ जिन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है, उसे प्रारम्भ में और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर ले आना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है । २४९. असंयत जीवोंमें प्रथम दण्डक ओधके समान है । इतनी विशेषता है कि आठ कषायका कथन ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके साथ करना चाहिए। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, पाँच संस्थान; पाँच संहनन, उद्योत, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुखर, श्रनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर शोधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतिका १. मूळप्रतौ - क्खायु० उज्जो० अप्प- इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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