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उक्कस्सठ्ठिदिबंधअंतरकालपरूवणा मिच्छत्त-अणंताणुबंधि०४-इत्थि० उक्क० हिदि० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० तिषिण पलिदो० देसू० । अपञ्चक्खाणा०४-णवुस-तिरिक्खगदि-चदुजादि-अोरालि०पंचसंठा०.-ओरालि अंगो०--छस्संघ०--तिरिक्वाणुपु०-आदाउज्जो०-अप्पसत्यवि०थावरादि०४-दूभग-दुस्सर-अण्णादे०-पीचा० उक्क० ओघं । अणु० जह० एग०, उक्क० पुन्चकोडी देस० । णिरय-मणुस-देवायु० उक्क० हिदि० पत्थि अंतरं । अणुक्क० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडितिभागं देसूणं । तिरिक्वायु० उक्क०
ओघं । अणु० जह० अंतो०, उक्क० पुवकोडी सादिरे । वेउव्वियछक्क-मणुसग०मणुसाणु०-उच्चा० ओघं।
२२३. पंचिंदियतिरिक्व०३ पढमदंडगेण सह देवगदि०४-उच्चा० कादव्वं । मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार और स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल श्रोधके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरण चार, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, चार जाति, औदारिक शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर आदि चार, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण है। तिर्यञ्च आयुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। वैक्रियिक छह, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओघके समान है।
विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें उसी पर्यायमें उत्पन्न हुए सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। यहाँ भवके आदि और अन्तमें इन प्रकृतियोंका बन्ध कराकर यह अन्तर काल ले आना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरण चार आदि प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि कहनेका कारण यह है कि संयतासंयत तिर्यचके अप्रत्याख्यानावरण चारका बन्ध नहीं होता और असंयत सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्चके शेषका बन्ध नहीं होता। इसलिए प्रारम्भमें और अन्तमें इनका बन्ध करावे और मध्यमें कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमासंयम और सम्यक्त्व गुणके साथ रख कर उक्त अन्तर काल ले आवे । यद्यपि तिर्यञ्चकी उत्कृष्ट प्रायु तीन पल्यकी भी होती है.पर वहां संयमासंयम गुणके न प्राप्त होनेसे अप्रत्याख्यानावरण चारका अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होता और भोगभूमिमें नपुंसकवेद आदिका बन्ध नहीं होता, इसलिए वहाँ तिर्यश्चोंमें अन्तरका प्रश्न ही नहीं उठता, अतः इन सबके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। शेष कथन सुगम है।
२२३. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च तीनमें प्रथम दण्डकके साथ देवगति चतुष्क और उच्चगोत्रका कथन करना चाहिए । इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट
१. मूलप्रती पंचिंदिय तिरिक्खोघो पढम-इति पाठः।
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