Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 429
________________ ३७६ महाबंधे विदिबंधाहियारे मणुसगळ-मणुसाणु०-उच्चा० उक जह• अंतो० । अणु० जह० एग०, दोरणं पि असंखेज्जा लोगा। सेसाणं उक्क जह• अंतो, उक्क अंगुलस्स असं० । अणु० जह० एग०, उक्क० अंतो० । सुहुमाए पज्जत्तापज्जत्त० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २३०. बेइं०-तेई०-चदुरिं० तेसिं पज्जत्ता तिरिक्खायु० उक्क. जह० बारसवरिसाणि एगुणवएणरादिदियाणि छम्मासाणि समयू०, उक्क. तिएणं पि संखेज्जाणि वाससहस्साणि । अणु० पगदिअंतरं। मणुसायु० उक्क० रणत्थि अंतरं । अणु० पगदिअंतरं । सेसाणं उक्क. जह• अंतो०, उक्क. संखेज्जाणि वाससह मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उञ्चगोत्रके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यातलोक प्रमाण है। शेष सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असख्यातवें भाग प्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंमें अपनी सब प्रकृतियोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष प्रमाण है। इसीसे एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बाईस हजार वर्ष कहा है। तथा एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल प्रमाण है, इसलिए इनमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। एकेन्द्रिय जीव मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होता है, फिर तिर्यश्च नहीं रहता,इसलिए यहां मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिवन्धके अन्तर कालका निषेध किया है। मनुष्यायुके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एकेन्द्रियों में मनुष्यायु प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है;यह पष्ट हो है। जो एकेन्द्रिय असंख्यात लोक प्रमाण काल तक अग्निकायिक और वायुकायिक होकर परिभ्रमण करता रहता है, उसके इतने काल तक मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें इन तीन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। मात्र इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर काल लाते समय वह पृथिवीकायिक आदिकी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करा कर ले आवे । एकेन्द्रियों में सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति भी असंख्यात लोकप्रमाण है और इनमें एकेन्द्रियोंको दृष्टिसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता, इसलिए एकेन्द्रियोंमें शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण कहा है। इस प्रकार यह सामान्य एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा अन्तरकालका विचार किया। इसी प्रकार बादर आदि एकेन्द्रियोंकी कायस्थिति आदि जान कर अन्तरकालका निर्णय करना चाहिए। __२३०. द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें तिर्यञ्चायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर एक समय कम बारह वर्ष, एक समय कम उनचास दिन रात और एक समय कम छह महीना है और उत्कृष्ट अन्तर तीनोंका संख्यात हजार वर्ष है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। मनुष्यायुके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल नहीं है। अनुस्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर १. मूलप्रतौ पज्जत्तापज्जता तिरि---इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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