Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 423
________________ ३७० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियार सेसाणं पणो हिदी देणा । सत्तमाए रियोघं । वरि मणुसगदि-मणुसाणु० उच्चा० उक्क० अ० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीस सा० दे० । २२२. तिरिक्खे पंचणा० इदंस०-सादासा० - अहकसा० सत्तणोक० -पंचिंदियतेजा ० क० समचदु०-वरण ०४ - अगुरु ०४- पसत्थवि०-तस०४-थिराथिर - सुभासुभ-सुभगसुस्सर-देव १० - जस० अजस० - णिमि० पंचंत० उक्क० अ० श्रघं । थी गिद्धि०३शेष प्रकृतियोंका भङ्ग कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सातवीं पृथिवीमें सामान्य नारकियोंके समान अन्तरकाल है । इतनी विशेषता है कि मनुध्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । विशेषार्थ - जो नारकी उत्पन्न होनेके बाद पर्याप्त होनेपर प्रथम दण्डकमें कही गई पाँच ज्ञानावरण आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और अनन्तर मरणके पूर्व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, उसके उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर उपलब्ध होता है, इसलिए यह अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। नरकमें सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है और सम्यग्दृष्टि के स्त्यानगृद्धि तीन आदि दूसरे दण्डकमें कही गई प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । तथा मिथ्यादृष्टि रहनेपर भी जन्मके प्रारम्भ में और अन्तमें पर्याप्त अवस्था में यदि उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तो इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका भी वही कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है । इससे यह भी उक्त प्रमाण कहा है। और सम्यग्दृष्टिके इनका बन्ध नहीं होता इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल भी कुछ कम तेतीस सागर कहा है । नरकमें मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यादृष्टि नारकीके छठे नरकतक ही होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम बाईस सागर कहा है । पर सातवें नरकमें इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर बन जाता है । कारण कि सातवें नरकमें जो भवके प्रारम्भ में र अन्तमें सम्यग्दृष्टि होकर इनका बन्ध करता है और मध्य में कुछ कम तेतीस सागर कालतक मिथ्यादृष्टि रहकर इनका बन्ध नहीं करता उसके इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तरकाल उपलब्ध होता है । इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है | तीर्थङ्कर प्रकृतिका तीसरे नरकतक साधिक तीन सागरकी युवाले नारकी होनेतक ही बन्ध होता है, इसलिए इसके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन सागर कहा है । यह नरकमें सामान्य से अन्तरकाल कहा है। प्रत्येक नरक में अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिको जानकर अन्तरकाल ले जाना चाहिए । मात्र छठे नरकतक मनुष्यगति आदि तीन प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि के भी होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल साताप्रकृतिके समान कहनेकी सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है । २२२ तिर्यञ्चों में पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, आठ कषाय, सात नोकषाय, पञ्चेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, देय, यशःकोर्ति, जयशःकीर्ति, निर्माण और पांच ग्रन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर काल ओोधके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494