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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
साग० सादि० । सेसारणं उक्क० अणु० सादभंगो ।
१७६. भवसिद्धि० ओघं । अव्भवसिद्धि० मदि० भंगो । सम्मादिट्ठी • ओषिभंगो । खइगसम्मादि० धुविगाणं उक्क० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अणु० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । मणुसगदिपंचगस्स उक्क० श्रघं । ऋणु ० ० जह० एग०, उक्क० तेत्तीस सा० । देवगदिचदुरणं सेसारणं च यं । १७७. वेदगस० पंचरणा० छदंसणा ० चदुसंज० - पुरिस० -भय-दुगु० - पंचिंदि०तेजा०० क० - समचदु०-वरण ० ४ - अगुरु ०४ - पसत्थवि ० -तस०४- सुभग- सुस्सर - आदे०रिणमि०-उच्चागो०-पंचंत०-उक्क० जह० अंतो० । अ० जह० अंतो०, उक्क
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साधिक इकतीस सागर है । तथा शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल साता प्रकृतिके समान है ।
विशेषार्थ- शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । इतने काल तक इस श्यामें पाँच ज्ञानावरण आदि उनसठ प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध होता रहता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । किंतु मनुष्यगतिपञ्चक अर्थात् मनुष्यगति, औदारिकशरीर, श्रदारिक श्रङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी इन पाँच प्रकृतियों का बन्ध संयत मनुष्यके नहीं होता, इसलिए उक्त कालमें से संयत सम्बन्धी शुक्ल लेश्याके अन्तर्मुहूर्त काल कम कर देनेपर देवगति सम्बन्धी शुक्ल लेश्याका तेतीस सागर काल शेष रहता है । यही कारण है कि इन पाँच प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल केवल तेतीस सागर कहा है । मिथ्यादृष्टि शुक्ल लेश्यावाले जीवका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर होने से स्त्यानगृद्धि आदि आठ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है ।
१७६. भव्य जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । श्रभव्य जीवोंमें मत्यज्ञानी जीवोंके समान है । सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। मनुष्यगतिपञ्चकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । देवगतिचतुष्क और शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल ओघ के समान है ।
विशेषार्थ - देवायुका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी बातको ध्यान में रखकर यहाँ क्षायिक सम्यक्त्वमें मनुष्यगतिपञ्चकके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है । शेष कथन सुगम है ।
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१७७. वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, श्रदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल
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