Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 407
________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ११२. एइंदिएसु धुविगाणं तिरिक्खगदितिगं च तिरिक्खोघं । सेसाणं तिरिक्वअपज्जत्तभंगो । बादर धुविगाणं अंगुलस्स असंखे० । तिरिक्वगदितिगं जह'० ओघं। अज० जह० एग०, उक्क० कम्महिदी० । बादरपज्ज० अज० हिदि. जह० एग०, उक्क० संखेजाणि वस्ससहस्साणि । एवं तिरिक्खगदितिगं पि । सेसाणं जह० अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । बादरअपज्ज० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । मुहुमे धुविगाणं जह० हिदि० तिरिक्वोघं। अज० जह० एग०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० । एवं तिरिक्खगदितिगं । सेसाणं जह० अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० अंतो० । पजत्तापजत्तेसु सव्यपगदीणं तिरिकावअपज्जत्तभंगो । विशेषार्थ---पाँच ज्ञानावरण आदि ४५ प्रकृतियोंका देवोंके निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल दो समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। मिथ्यात्वके साथ देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति इकतीस सागर है। इसीसे यहाँ स्त्यानगृद्धि तीन आदि अाठ प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। देव सम्यग्दृष्टिके पुरुषवेद आदि तेरह प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध होता रहता है। इसीसे यहाँ इनके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है। असंही जीव भवनवासी और व्यन्तर देवों में ही मरकर उत्पन्न होता है, इसलिए देव सामान्यकी अपेक्षा यहाँ जो काल कहा है,वह उनमें भी घटित हो जाता है। मात्र अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कहते समय वह उनकी भवस्थितिप्रमाण ही कहना चाहिए, क्योंकि देव सामान्यमें यह काल देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको ध्यानमें रखकर कहा है। शेष कालका स्पष्टीकरण जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिवन्धके कालके कथनके समय किया है.उसी प्रकार यहाँ पर भी कर लेना चाहिए। १९२. एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ और तिर्यञ्चगति त्रिकका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। बादर एकेन्द्रियोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तिर्यञ्चगति त्रिकके जघन्य स्थितिवन्धका काल ओघके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण है। बादर पर्याप्तकोंमें अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतित्रिकका काल भी जानना चाहिए। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। बादर अपर्याप्तकोंमें तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिए । सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगतित्रिकका काल जानना चाहिए । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। १. मूलप्रतौ जह० जह० श्रोधं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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