Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 415
________________ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे २०८. संजदासंजदे उक्कस्तभंगो । वरि सादादि - असादादि० आभिणि भंगो । संजदे धुविगाणं तिक्खिगदितिगं च मदिभंगो । सेसं उक्कस्तभंगो । २०६. चक्खुदंसणी • तसपज्जत्तभंगो | अचक्खुर्द • ओघं । श्रधिदं० श्रधिभिंगो । ० ३६२ २१०. किरण ० - गील० - काउ० उक्कस्सभंगो । । वरि तित्थयरं पीलभंगो । २११. तेउले० परिहारभंगो । वरि अष्पष्पणो पगदीओ जाणिदव्वा । धुविafteri अज • उक्क० सोधम्मभंगो । एवं पम्माए । वरि सगहिदी । २१२. सुकाए खवगपगदीणं जह० जह० उक्क० अंतो० । अज० द्विदि० जह० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादिरे० । श्रीणगिद्धि ०३ - मिच्छ०-ताणुबंधि०४ जह० हिदि० जह० उक्क० अंतो० । अज० जह० एग०, मिच्छत्तं अंतो०, उक्क० एकत्तीस साग० सादिरे० । पुरिस० जह० हिदि०' ओघं । अज० हिदि० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं सा० सादि० । एवं अकसायाणं परियत्तमाणियाणं । मसग ० - ओरालि० ओरालि ० अंगो० - वज्जरिसभ० - मणुसार ० श्रधिभंगो | सादा० २०८. संयतासंयत जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेषता है कि साता आदि और साता श्रादिकका भङ्ग श्राभिनिबोधिकज्ञानके समान है । श्रसंयत जीवों में ध्रुव प्रकृतियाँ और तिर्यञ्चगतित्रिकका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान 1 २०९ चतुदर्शनी जीवोंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग त्रस पर्याप्तकोंके समान है, चतुदर्शनी जीवों में श्रधके समान है । अवधिदर्शनी जीवोंमें अवधिज्ञानियोंके समान है । २१०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें उत्कृष्टके समान है । इतनी विशेपता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग नील लेश्याके समान है । २११. पीत लेश्या परिहारविशुद्धिसंयत के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल सौधर्मकल्पके समान है । इसी प्रकार पद्म लेश्यामें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । २१२. शुक्ललेश्यामें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जधन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । श्रजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । पुरुषवेदके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल श्रोघके समान है । जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार परिवर्तमान आठ कषायों का काल जानना चाहिए । मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्य गत्यानुपूर्वीका भङ्ग अवधिज्ञानियोंके १. मूलप्रतौ हिदि० जह० श्रोधं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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