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जहएट्टिदिबंधकालपरूवणा हस्स-रदि-आहार-आहार०अंगो-थिर-मुभ-जस. ओधिभंगो। तप्पडिवक्रवाणं इत्थिवेदादि य परियत्तमाणियाणि ओघं ।
२१३. भवसिद्धिया० मूलोघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो ।
२१४. सम्मादिहि. आभिणिभंगो। खड्गसम्मादिही० ओधिभंगो। णवरि सगहिदि कादव्वं । एवं वेदगे । उवसम० पंचणा-छदसणा-बारसक-पुरिस०भय-दुगु-देवमदि-पंचिंदि० वेउबि-तेजा-का-समचदु०-वेउबि अंगो-वएण०४
समान है। साता वेदनीय, हास्य, रति, आहारक शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग, स्थिर, शुभ और यश कीर्तिका भङ्ग अवधिशानियोंके समान है । तथा इनके प्रतिपक्षभूत स्त्रीवेद आदि परिवर्तमान प्रकृतियोंका भङ्ग अोधके समान है।
विशेषार्थ-क्षपकश्रेणिमें एक स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होता है, इसलिए शुक्ललेश्यामें क्षपक प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त कहा है। तथा शुक्ल लेश्यामें इनका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर काल तक निरन्तर बन्ध होता रहता है, इसलिए इनके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। जो मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उसके स्त्यानगृद्धि तीन आदि आठ प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है और वहाँ एक स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्महुर्त कहा है। इन प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और. उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है; यह स्पष्ट ही है । मात्र मिथ्यात्व सप्रतिपक्ष प्रकृति न होनेसे उसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेद भी आपक प्रकृति है, इसलिए उसके जघन्य स्थितिबन्धका काल ओघके समान कहा है। तथा एक तो यह सप्रतिपक्ष प्रकृति है और दूसरे सम्यग्दृष्टिके एक मात्र तीन वेदोंमेंसे इसीका बन्ध होता है, इसलिए इसके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । तथा इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए । मात्र एक तो, अप्रत्याख्यानावरण चारका अविरतसम्यग्दृष्टिके और प्रत्याख्यानावरण चारका संयतासंयतके जघन्य स्थितिबन्ध कहना चाहिए और दूसरे अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहते समय उसे देवोंकी तेतीस सागर आयुके प्रथम समयसे प्रारम्भ कर साधिक तेतीस सागर घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट हो है।
२१३. भव्य जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोघ के समान है। अभव्य जीवों में अपनी प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है।
२१४. सम्यग्दृष्टि जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानियोंके समान है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवधिशानियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए। उपशम सम्यग्दृष्टि जीवों में पाँच शानावरण, छह दर्शनावरण, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण
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