Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 417
________________ ३६४ महाबंधे द्विदिबंधाहियारे देवाणु-अगु०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमिण-तित्थय -उच्चा०-पंचंतरा. जह• हिदि. जह० एग, उक्क० अंतो० । अज० हिदि० जहएणु. अंतो० । णवरि देवगदि०४ अज० हिदि० जह० एग० । सेसाणं जह० अज० जह० एग०, उक्क० अंतो । वरि अहकसा०-मणुसगदिपंचगस्स जह• अज० जहएणु० अंतो । णवरि मणुसगदिपंचगस्स जह० सादभंगो । २१५. सासणे सम्मामिच्छे उक्कस्सभंगो। मिच्छादिही० मदिभंगो । सरणीसु सव्वपगदीणं जह• मणुसोघं । अज० अणुक्क० भंगो। णवरि केसि वज० अंतो० । असएणीसु उक्कस्सभंगो । णवरि धुविगाणं असंखेज्जा लोगा। चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके अजघन्य स्थितिबन्धको जघन्य काल एक समय है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि आठ कषायोंके और मनुष्य गतिपञ्चकके जघन्य और अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगति पञ्चकके जघन्य स्थितिबन्धका काल साताके समान है। विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति चार पूर्वकोटि अधिक छयासठ सागर, क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति कुछ कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर और वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति छयासठ सागर है। इसे ध्यानमें रखकर इन सम्ययत्वों में अपनी अपनी प्रकृतियोंके अजयन्य स्थितिबन्धका जहां जो सम्भव हो काल कहना 'चाहिए । शेष विशेषताका निर्देश मूलमें किया ही है। यहां उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें पाँच झानावरण आदिके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है सो इसका कारण यह है कि जो उपशम सम्यग्दृष्टि उपशम श्रेणिमें इनका एक समय तक जघन्य स्थितिबन्ध करता है और दूसरे समयमें मर कर वह देव होकर अजघन्य स्थितिबन्ध करने लगता है उसके इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है। इसीसे वह एक समय कहा है। इसी प्रकार देवगति चतुष्कके अजघन्य स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिए। कारण कि उपशम श्रेणिसे उतरते समय जो एक समयके लिए देवगतिचतुष्कका अजघन्य स्थितिबन्ध करता है और दूसरे समयमें मर कर उसके देव हो जाने पर वह इन प्रकृतियोंका प्रबन्धक हो जाता है, इसलिए यह काल भी एक समय उपलब्ध होता है। शेष कथन सुगम ही है। २१५. सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में सब प्रकृतियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। मिथ्यादृष्टि जीवों में मत्यज्ञानियोंके समान है। संशी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका काल सामान्य मनुष्योंके समान है। अजघन्य स्थितिबन्धका काल अनुत्कृष्टके समान है। इतनी विशेषता है कि किन्हीं प्रकृतियोंका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं है। असंही जीवों में उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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