Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 394
________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३४१ छावहिसाग । सेसं ओधिभंगो। णवरि देवगदिचदुक्कं उक्क० जह• उक्क. अंतो। [अणुक्क० जह० अंतो, उक्क.] तिषिण पलिदो० देमू। १७८. उवसमस. ओधिभंगो । णवरि तित्थय० उक्क० जह• एग०, उक्क० अंतो० । अण. जह० उक्क. अंतो । सेसं धुविगाणं उक्क० अणु० जह० [उक्क०] अंतो। १७६. सासणे पंचणा०-णवदंस०-सोलसक-भय-दुगु-तिएिणगदि-पंचिंदिय-चदुसरीर-समचदु०-दोअंगो०-वरण ४-तिषिणाणुपु०-अगुरु०४-पसत्थवि०-- तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे०-णिमि०-णीचुच्चागो०-पंचंत० उक्क० ओधिभंगो। अणु० जह• एग०, उक्क० छावलियाओ। तिरिक्खगदितियं सत्तमाए उक्क० उक्कसं कालं होहिदि त्ति । मणुसग०-ओरालि०-ओरालिअंगो-मणुसाणु०-अणादे० देवस्स उक्कस्सभंगं भवदि । देवगदि-वेउन्वि०-समचदु०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० छयासठ सागर है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि देवगतिचतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। विशेषार्थ-उत्तम भोगभूमिमें वेदक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ देवगति चतुष्कके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है। १७८. उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंमें अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंके तथा ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-उपशम सम्यग्दृष्टियों में अवधिज्ञानी जीवोंके समान भङ्ग है; इस कथनका यह अभिप्राय है कि अवधिज्ञानमें परावर्तमान प्रकृतियोंका काल जिस प्रकार कहा है, उस प्रकार उनका काल यहाँ भी कहना चाहिए। शेष यहाँ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों और तीर्थङ्कर प्रकृतिके विषयमें जो विशेषता है, वह यहाँ अलगसे कही ही है। १७९. सासादनमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तीन गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, चार शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, तीन बानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह प्रावलि प्रमाण है। तिर्यञ्चगति त्रिकके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल सातवीं पृथिवीमें होगा,ऐसा यहाँ समझना चाहिए । मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और अनादेय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट भंग देवके होता है। देवगति, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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