Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 389
________________ ३३६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे १७०. संजदासंजदे धुविगाणं तित्थयरस्स च उक्क० जहएणु० अंतोमु० । अणु० जह• अंतो०, उक्क० पुचकोडी देसू० । सादादिबारस० अोधिभंगो । १७१. असंजदे धुविगाणं तिरिक्खगदि-मणुसगदि-देवगदि-ओरालिय०-वेउविय-दोअंगो-तिएिणप्राणु०-तित्थय-णीचागो०-सादादिपरियत्तमाणियाओ मूलोघं । पुरिसवे-पंचिंदि०-समचदु०-पर-उस्सा-पसत्थवि०-तस०४-सुभग-सुस्सर का जघन्य काल एक समय प्राप्त होनेसे वह एक समय कहा है। तथा छठे गुणस्थानका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। संयत, सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। परिहारविशु संयम प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके ही होता है और इसका जघन्य काल अन्त. मुहर्त है, इसलिए इसमें और सब काल तो पूर्वोक्त प्रकार बन जाता है। मात्र जिन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय कहा है यह नहीं बनता, अतः वह अन्तमुहूर्त कहना चाहिए । शेष कथन सुगम है। १७०. संयतासंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली और तीर्थंकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्त. मुहर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है। साता आदि बारह प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल अवधिचानी जीवोंके समान है। विशेषार्थ-संयतासंयत गुणस्थानमें ५शानावरण, ६ दर्शनावरण, ८ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, गुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुखर, आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और ५ अन्तराय ये ५३ ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ है। और जिसके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, उसकेस इन ५४ प्रकृतियोंका सतत बन्ध होता है। इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके अभिमुख हुए जीवके उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंके होने पर अन्तिम उत्कृष्ट स्थितिबन्ध में अवस्थित होने पर होता है और यह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता रहता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा संयमासंयमका जघन्य काल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण होनेसे इन प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि कहा है। साता आदि शेष १२ प्रकृतियाँ ये हैं-साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति, सो अवधिशानी जीवोंके इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जिस प्रकारसे काल घटित करके बतला आये हैं,उसी प्रकारसे यहां पर भी घटित कर लेना चाहिए। १७१. असंयत जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियाँ तथा तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तीन आनुपूर्वी, तीर्थङ्कर, नीचगोत्र और साता आदि परावर्तमान प्रकृतियाँ इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मूलोघके समान है । तथा पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रिय जाति, समचतुरस्रसंस्थान, परघात, उच्लास, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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