Book Title: Mahabandho Part 2
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 384
________________ उक्कस्सट्ठिदिबंधकालपरूवणा ३३१ एगसमयं, उक्कस्सेण तेत्तीसं साग० दे० । देवादि०४ उक्क० ओघं । अ० जह० एग०, उक्क ० पुव्वकोडी सू० । पंचिंदि० - ओरालि ० अंगो ० पर ० - उस्सा ० -तस०४ उक० प्रघो । अणु० जह० एग०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० । तित्थय उक्क० श्रवं । अणु० जह० एग०, उक्क० तिरिए साग० सादि० । १६४. अवगादवेदे ० सव्वपगदी उक्क० अ० जह० एग०, उक्क० अंतो• । १६५. कसायावादे कोधादि०४ मरणजोगिभंगो । है । देवगति चतुष्कके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल कुछ कम पूर्वकोटिवर्ष प्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, परघात, उच्छ्वास और त्रस चतुष्क प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रोघके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है। और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तीर्थकर प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल श्रधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्टकाल साधिक तीन सागर है । विशेषार्थ -- नपुंसक वेद में सम्यक्त्वका उत्कृष्टकाल कुल कम तेतीस सागर है । इसीसे यहाँ पुरुषवेद आदि दस प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा है; क्योंकि इन प्रकृतियोंका निरन्तर बन्ध इतने कालतक सम्यग्दृष्टिके ही हो सकता है । नपुंसकवेदमें सम्यक्त्वका उत्कृष्टकाल मनुष्य और तिर्यञ्चके कुछ कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण है; इसीलिए यहाँ देवगति चतुष्कके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा है। क्योंकि जो नपुंसकवेदी मनुष्य या तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि होता है, उसके देवगति चतुष्कके नियमसे बन्ध होता है । पञ्चेन्द्रिय जाति आदि आठ प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहनेका कारण यह है कि जिसने पूर्वभवमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर इन प्रकृतियोंका बन्ध प्रारम्भ किया है और जो मरकर तेतीस सागर आयुके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ है, उसके उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर उपलब्ध होता है । तीर्थंकर प्रकृति के अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट कालका स्पष्टीकरण जिस प्रकार ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ जान लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । १६४. अपगतवेदवाले जीवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - अपगत वेदका जघन्य काल एक समय है, या जिस जीवने अपगतवेदमें बँधनेवाली प्रकृतियोंका एक समयतक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया और दूसरे समयमें वह मरकर देव हो गया, तो अपगतवेद में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय उपलब्ध हो जाता है । इसीसे वह एक समय कहा है । उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, यह स्पष्ट हो है; क्योंकि यहाँ एक - एक स्थितिबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । १६५. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधादि चार कपायोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका काल मनोयोगी जीवोंके समान है । विशेषार्थ-चारों कषायका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे यहाँ मनोयोगी जावोके समान सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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