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उक्कस्सअंतरपरूवणा सुहुमसंप० छएणं कम्मा० उक्क० अणु० णत्थि अंतरं ।
१०८ चक्खुदसणी. तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदं० ओघं ।
१०६ किएण-णील-काउ० सत्तएणं क० उक्क० जह• अंतो, उक्क० तेत्तीसं साग० सादि० सत्तारस-सत्तसागरो० देसू० । अणु० ओघं । आयु० उक्क पत्थि अंतरं । अणु० जह• अंतो, उक्क छम्मासं देसणं । तेउ-पम्माए सत्तएणं क० उक्क० जह० अंतो०, उक्क० बे अट्ठारस सागरो० सादिरे । सेसं देवोघं । मुक्काए सत्तएणं
आयुकर्मका भंग मनःपर्ययज्ञानके समान है। इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायः शुद्धिसंयतों में छह कौके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-विभङ्ग ज्ञानका उत्कृष्ट काल सातवें नरकमें उत्कृष्ट आयुवाले नारकीके कुछ कम तेतीस सागर होता है। इसीसे इसमें सात कर्मोके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा है। आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में सात कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्वके सम्मुख हुए अविरत सम्यग्दृष्टिके होता है। यही कारण है कि इनमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके अन्तरकालका निषेध किया है । सौधर्म और ऐशान कल्पकी जघन्य स्थिति साधिक पल्यप्रमाण होती है। इसीसे इन तीन शानोंमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर साधिक पल्यप्रमाण कहा है। भवनत्रिकमें सम्यग्दृष्टिका उत्पाद नहीं होता, इसलिए इससे कम अन्तरकाल उपलब्ध नहीं होता। मात्र यहाँ पूर्वकोटिके आयुवाले मनुष्यके प्रथम त्रिभागमें तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट आयुका बन्ध करावे । पुनः अपकर्षण द्वारा आयुको साधिक पल्यप्रमाण स्थापित कराके सौधर्म और ऐशान कल्पमें उत्पन्न करावे । अनन्तर पुनः पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न कराके प्रथम त्रिभागमें तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट अायुका बन्ध कराके यह अन्तरकाल ले आवे। इनमें आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल जो कुछ कम छयासठ सागरप्रमाण कहा है सो यह वेदकसम्यक्त्वके उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर कहा है। यहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कराके प्रारम्भमें और अन्तमें आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करानेसे यह अन्तरकाल प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है।
१०८. चक्षुदर्शनी जीवोंमें त्रस पर्याप्तकोंके समान भंग है और अचक्षुदर्शनी जीवोंमें ओघके समान है।
विशेषार्थ-त्रस पर्याप्तकोंके समान चतुदर्शनी जीवोंकी कायस्थिति है, इसलिये इनमें आठ कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल त्रसपर्यातकोंके समान कहा है। शेष कथन सुगम है।
१०९. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें सात कर्मोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक तेतीस सागर, कुछ कम सत्रह सागर और कुछ कम सात सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर अोधके समान है। आयुकर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका अन्तर नहीं है, अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। पीत और पद्मलेश्यामें सात कर्मों में उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है। शेष अन्तर सामान्य देवोंके समान है। शुक्ल
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