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महाबंधे द्विदिबंधाहियारे अएण• मिच्छादि० सागार-जा० सव्वविसुद्ध० सम्मत्ताभिमुह० चरिमे जह. हिदि० वट्टमा ।
११७. तिरिक्खेसु पंचणा-णवदसणा-असादावे-मिच्छत्त-सोलसक०परिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदिय-ओरालिय-तेजा-का-समचदु०-ओरालि अंग्गो०-वजरिसभ०-वरण ४-अगुरु०४-पसत्थवि०-तस०४-थिरादिछ--णिमिपंचंत. जह० हिदि० कस्स. ? अएण. बादरएइंदि० सागार-जा० सव्वविसुद्धस्स जह० ट्ठिदि० वट्टमा० । सेसं मूलोघं । वरि उच्चा० मणुसगदिभंगो । ram जो साकार जागत है, सर्वविशुद्ध है, सम्यक्त्वके अभिमुख है और अन्तिम स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है।
विशेषार्थ-दूसरी आदि पृथिवियोंमें असंशी जीव तो मरकर उत्पन्न होता नहीं, इसलिए यहां असंशोके योग्य स्थितिबन्ध सम्भव नहीं; फिर भी मिथ्यात्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वके सद्भावमें स्थितिबन्ध न्यून होता है, इसलिए यहां जिन प्रकृतियोंका सम्यग्दृष्टिके बन्ध होता है, उनका तद्योग्य श्रावस्थाके होने पर जघन्य स्थितिबन्ध कहा है और जिन प्रकृतियों
सम्यग्दृष्टिके बन्ध नहीं होता,उनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मिथ्यादृष्टिको कहा है। एक बात अवश्य है कि मिथ्यादृष्टि दो प्रकारके होते हैं-एक स्वस्थान स्थित और दूसरे सम्यक्त्वके अभिमुख । यहां सम्यक्त्वसे तात्पर्य उपशम सम्यक्त्वसे है। आगममें उपशम सत्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके ३४ बन्धापसरण बतलाये हैं। उनके देखनेसे विदित होता है कि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए नारकीके स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, तिर्यश्चगति, पांच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी स्वस्थान स्थित मिथ्यादृष्टि कहा गया है और स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध सम्यक्त्वके अभिमुख हुए नारकीके भी होता रहता है, इसलिए इनके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी सम्यक्त्वके अभिमुख हुआ नारकी जीव कहा गया है। मात्र सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व गुणस्थानमें तिर्यञ्चगति, तिर्गञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका ही बन्ध होता है, इसलिए इसके सम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर भी इनका बन्ध होता रहता है । यही कारण है कि सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवको मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र इन प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
११७. तिथंचोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ, वज्रषभनाराच संहनन, वर्ण अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिरादि छह, निर्माण और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर बादर एकेन्द्रिय जो साकार जाग्रत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मूलोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें उच्चगोत्रके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी मनुष्यगतिके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीके समान है।
सोचतषक.
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