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जहएण-सामित्तपरूवणा
२६१ ११८. पंचिंदियतिरिक्ख०३ पंचणा०-णवदंसणा-सादावे-मिच्छत्त-सोलसक०-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-देवगदि-पचिंदि०-वेवि०-तेजा-कसमचदु०-वेउव्विय अंगो-वरण०४-देवाणुपु०-अगुरु०४-पसत्यवि• तस०-थिरादिछक्क-णिमिण-उच्चा-पंचंत० जह• हिदि० कस्स० १ अण्ण० असणिण सागार-जा. सव्वविसु० जह० हिदि० वट्टमा० । णिरय-देवायु० ओघं । तिरिक्ख-मणुसायु० जह० हिदि० कस्स० ? अएण० सएिण. असगिण. पज्जत्तापज्जत्त० तप्पाओग्गसंकिलि० जह' [आबा०] । सेसाणं सो चेव सामीओ सागार-जा. तपाओग्गविसु० जह० हिदि० वट्ट ।
११६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु पंचणा०-गवदंसः-सादावे०-मिच्छत्त-सोल
विशेषार्थ-पहले श्रोधसे सब प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामीका निर्देश कर आये हैं । वहां जिन प्रकृतियोंका क्षपक सूक्ष्मसाम्परायमें, क्षपक अनिवृत्तिकरणमें और क्षपक अपूर्वकरणमें जघन्य स्वामित्व कहा है,उनका यहां बादर एकेन्द्रियपर्याप्त जीवोंके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिए । मात्र उच्चगोत्रका बन्ध अग्निकायिक और वायुकायिक जीवोंके नहीं होता, इसलिए इसके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तके न कह कर मनुष्यगतिके जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वके समान इसका स्वामी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव होता है। इतना विशेष कहना चाहिए । तिर्यञ्चगतिमें श्राहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, यह स्पष्ट ही है।
११८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें पाँच झानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवानुपूर्वो, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसकाय, स्थिर आदि छह, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है? अन्यतर असंक्षी जो साकार जागृत है, सर्वविशुद्ध है और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित है,वह उक्त प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। नरकायु और देवायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी श्रोधके समान है। तिर्यश्चायु और मनुष्यायुके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर संज्ञी या असंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त जो तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणामवाला है और जघन्य आवाधाके साथ जघन्य स्थितिबन्ध कर रहा है,वह उक्त दो आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामी है। तथा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्ध का साकार जागृत तत्प्रायोग्य विशुद्ध और जघन्य स्थितिबन्धमें अवस्थित वही जीव स्वामी है।
विशेषार्थ-यहां चार आयुओंके सिवा शेष प्रकृतियोंके जघन्य स्थितिबन्धका स्वामित्व असंही पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंकी मुख्यतासे कहा है। कारण कि पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिक में इन्हींके सबसे जघन्य स्थितिबन्ध सम्भव है। किन्तु चार आयुओंके जघन्य स्थितिबन्धके लिए यह नियम नहीं है। इतना अवश्य है कि नरकायु और देवायुका बन्ध पर्याप्तके ही होता है और शेष दो आयुओका बन्ध सबके होता है।
११६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें पाँच ज्ञानाधरण, नौ दर्शनावरण, साता
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